
Why people started demanding hinu nation in nepal
नई दिल्ली । नेपाल में लोकतंत्र के नाम पर जनता ठगी हुई महसूस करने लगी है। राजशाही और हिंदू राष्ट्र की मांग ने हिंसक आंदोलन का रूप ले लिया है। लोग सड़कों पर उतर आए हैं और सुरक्षाबलों के साथ झड़पें होने लगीं। शुक्रवार को राजधानी काठमांडू समेत कई इलाकों में प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाबलों में झड़प हो गई। कई जगहों पर आगजनी हुई और कम से कम दो लोगों की मौत हो गई। नेपाल की सरकार ने सेना को उतार दिया है और कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया है। बता दें कि 2008 में इसी जनता ने राजशाही को खत्म करके लोकतंत्र पर भरोसा जताया था। हालांकि लोकतंत्र के नाम पर वहां की कम्युनिस्ट सरकार केवल चीन की हिमायती बनकर रह गई। इसके लिए उसने नेपाल के लोगों के हितों को भी दांव पर लगा दिया। ऐसे में राजशाही समर्थक संगठनों ने जनता को एक बार फिर राजशाही की मांग करने के लिए तैयार कर दिया। अब संगठन पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह की वापसी को लेकर लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं।
साल 2008, नेपाल के सियासी दलों ने संसद की घोषणा के जरिए 240 साल पुरानी राजशाही को खत्म किया. हिंदू राष्ट्र को एक धर्मनिरपेक्ष, संघीय, लोकतांत्रिक गणराज्य में बदला गया. 17 साल बाद अब काठमांडू की सड़कों पर राजशाही की बहाली और हिंदू राष्ट्र की मांग उबाल मार रही है. काठमांडू के कुछ हिस्सों में यह आंदोलन इतना हिंसक हुआ कि 53 पुलिसकर्मी, सशस्त्र पुलिस बल के 22 जवान और 35 प्रदर्शनकारी घायल हो गए. 14 इमारतों में आग लगा दी गई. नौ इमारतों में तोड़फोड़ हुई. दर्जनों निजी और सरकारी वाहनों में आगजनी और तोड़फोड़ की गई. कई इलाकों में कर्फ्यू लगाना पड़ा. आखिर नेपाल में चल क्या रहा है?
काठमांडू में राजतंत्र समर्थक आंदोलनकारियों और पुलिस के बीच हिंसक टकराव ने राजा और राजतंत्र को नेपाल की राजनीति के केंद्र में ला दिया है. यह आंदोलन पुराने राजतंत्र को बहाल करने का प्रयास मात्र है. माओवादियों के 10 साल के जनयुद्ध और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के जन आंदोलन के बाद बनी पहली संविधान सभा ने 2008 में नेपाल के 238 साल पुराने राजतंत्र को खत्म कर देश को गणतांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया था. लेकिन इस सियासी बदलाव के बावजूद नेपाली समाज में राजा के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ था. 2008 में सभी राजनीतिक दल माओवादियों के जनयुद्ध से परेशान थे और एक नई संविधानिक व्यवस्था की ओर बढ़ना चाहते थे. इसलिए संघात्मक शासन, गणतंत्र और धर्मनिरपेक्ष नेपाल की कल्पना का कोई विशेष विरोध नहीं हुआ. लेकिन राजा समर्थक ताकतें वहां मौजूद थीं.
एकात्मक शासन का झंडा
जब पहली संविधान सभा नेपाल का संविधान बनाने में असफल रही और 2013 में दूसरी संविधान सभा का गठन हुआ, तो नेपाली कांग्रेस, एमाले और माओवादी जैसे सभी राजनीतिक दल लगभग एक समान एजेंडे को लेकर चल रहे थे. लेकिन राजा समर्थक राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी का चुनावी अजेंडा अलग था. वह हिंदू राष्ट्र, संवैधानिक राजतंत्र और एकात्मक शासन का झंडा उठाए चल रही थी.
दलों के बीच सिद्धांत की प्रतिस्पर्धा
राजा के प्रति सहानुभूति उभरने के दो प्रमुख कारण हैं. पहला नेपाल के राजनीतिक दलों के बीच सिद्धांत की प्रतिस्पर्धा और सत्ता के प्रति अतिरिक्त अनुराग. 2008 से 2025 के 17 सालों में यहां 11 सरकारें बन चुकी हैं. इसका सीधा अर्थ है कि कोई भी सरकार डेढ़ साल के औसत कार्यकाल की रहीं. तीन प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस, माओवादी और एमाले आपस में कुर्सी दौड़ में इतना अधिक व्यस्त रहे कि जनता के प्रति इनका कोई ध्यान नहीं रहा.
केंद्र की अस्थिरता का प्रभाव राज्यों पर भी पड़ा और वहां भी सरकारें केंद्र के साथ ही बनती बिगड़ती रहीं. इतनी अधिक राजनीतिक अस्थिरता के कारण जनता का विशेष तौर पर मध्यम वर्ग का इन राजनीतिक दलों से मोहभंग होना शुरू हो गया. पिछले चुनाव में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के तौर पर एक राजनीतिक दल का उदय हो गया. अपने जन्म के छह माह में ही इसने चुनाव में अपनी असरदार मौजूदगी दर्ज करा दी. इस पार्टी के नेता को उप-प्रधानमंत्री पद पर पहुंचा दिया. इस पार्टी को मध्यम वर्ग के अलावा विदेशों में रहने वाले नेपालियों का समर्थन भी हासिल था.
संगठनों के बीच गोलबंदी होने लगी
इधर नेपाल के अंदर राजा के समर्थन और विरोध में दलों और संगठनों के बीच गोलबंदी होने लगी है. राजा समर्थक दल ‘नवीन समझदारी’ नाम से एकत्रित होने लगे हैं, तो विरोधी समाजवादी फ्रंट के तहत एकजुट हो रहे हैं. एमाले और माओवादी, दोनों दल राजा को चुनौती दे रहे हैं कि अगर लोकप्रिय हो तो चुनाव में आकर दिखाओ. प्रचंड इसके लिए वर्तमान प्रधानमंत्री केपी ओली को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं कि उनके कमजोर नेतृत्व के कारण राजा को सहानुभूति मिली है. यह मामला अभी शांत होने वाला नहीं है और भविष्य में यही नेपाल की राजनीति के केंद्र में रहेगा.