
The whole thing in a few ,bazm e hayat
“ रमेश कुमार ‘रिपु’ के इस नए ग़ज़ल संग्रह बज्म-ए-हयात में ज्यादातर ग़ज़लें नए दौर की है। वैसे भी जदीद ग़ज़लें अब चाय की टपरी से लेकर काॅफी हाउस तक पहुंच गयी है। क्यों कि उन्हें शराब खाने और ऊंचे महलों के ठहाके रास नहीं आते। तस्व्वुर के लिहाफ़ को उतार कर फेंक दिया है।ताकि खुली नज़रों से सब देख सके। बज्म-ए-हयात के जरिये आप समझ सकते हैं कि नई तहजीब की ग़ज़लंे फकत अवाम के मसले और उनके दर्दो का बहीखाता भर नहीं है। तमाम तल्ख सच्चाई का रोज़नामचा है-
– दिव्या दुबे / किताब समीक्षक
रमेश कुमार ‘रिपु’की यह दूसरी ग़ज़ल संग्रह है। हम जिस दौर में जी रहे हैं,उस दौर की बानगी है बज़्म-ए-हयात। इस संग्रह की ग़ज़लें आम आदमी के पक्ष की बात करती है। चूंकि अब शराब और शबाब की ग़ज़लों का दौर खत्म हो गया है। यह बात रिपु जी की ग़ज़लों में है।संग्रह के नाम से ही स्पष्ट है कि ज़िन्दगी की महफ़िल की तस्वीर है। इसमें सियासत से लेकर शिकायत तक तक के रंग हैं। इस संग्रह में ज़िन्दगी का कोई कोना शायद ही छूटा है।पर्यावरण को लेकर सुन्दर बात कही गयी है।
बूढे पेड़ से कहा,कल तुम्हारा दिन मनाऊंगा
शहर के सारे पंक्षियों को दावत पे बुलाऊंगा
मेरी बेटी की ख्वाहिश है,उसके पैर गंदे न हों
उसके स्कूल से, घर तक सड़क बनावाऊंगा
बज़्म-ए-हयात में सत्ता और सियासत को लेकर कई शेर कहे गए हैं। हम जिस दौर में जी रहे हैं उस दौर में सियासी गारंटी सिर्फ़ जुमला बनकर रह गयी है। सरकारी एजेंसी का भय दिखाकर लोगों को दहशतजदा किया जा रहा है। नए जमाने की सियासत और सत्ताई चेहरे को देखकर मन में सवाल उठता है कि क्या हम सबने इसी जम्हूरियत की कल्पना किये थे।
जिसे बनाया हमने जम्हूरियत का शहरयार
देना था हयात,दे गया गारंटी का इश्तिहार
इलेक्टोरल बांड से हालते-इंसा बेहद खराब
ईडी का खौफ़ दिखा के, किया भ्रष्टाचार
बहुत सारे शेर ऐसे हैं जिन्हें पढ़ते ही समझ में आ जाता है कि किस संदर्भ में कहा गया है। किसके लिए लिखा गया है। इसमें ज्यादातर ग़ज़ले नए दौर की है। वैसे भी जदीद ग़ज़लें अब चाय की टपरी से लेकर काॅफी हाउस तक पहुंच गयी है। क्यों कि उन्हें शराब खाने और ऊंचे महलों के ठहाके रास नहीं आते। तस्व्वुर के लिहाफ़ को उतार कर फेंक दिया है।ताकि खुली नज़रों से सब देख सके। बज्म-ए-हयात के जरिये आप समझ सकते हैं कि नई तहजीब की ग़ज़लें फकत अवाम के मसले और उनके दर्दो का बहीखाता भर नहीं है। तमाम तल्ख सच्चाई का रोज़नामचा है-
बेक़रार ही करना था, तो क्यों किया था इक़रार
हवा में क्यों बना दिया, अच्छे दिन की दीवार
हमने बेकार में ही नारे लगाए थे,गली -गली में
जोर से बोलो, अब की बार चार सौ के पार
पत्रकारों को लेकर बड़ी तल्ख बात कही गयी है। आज की मीडिया पर लोगों को भरोसा उठ गया है। सभी जानते हैं कि मीडिया दिन रात किसके कसीदे गढ़ता है। और ऐसा क्यों हुआ है किसी से छिपा नहीं है-
हर्फ के सौदागरों को,सियासत का दलाल बना दिया
ये उसकी फ़ितरत है,सहाफी को कव्वाल बना दिया
एक बच्चे से सियासी झंडा मांग लाए थे
हम किसी पार्टी के,दफ़्तर से नहीं आए थे
महसूस करिए विकास यात्रा के एहसास को
विधायक के ड्राइंगरूम में कैद मधुमास को
ये सत्ताई हिटलर,बहुत कुछ कर देंगे
कुछ नही तो,तुम्हें तड़ी पार कर देंगे
रचनाकार ने दिल की बात भी की है।छोटी बड़ी अनुभूतियों को देसी अंदाज में व्यक्त किया है। यही वजह है कि रूमानियत में मिठास का एहसास होता है मगर अलग अंदाज में –
नैनों की दोहनी में है चाहत का दूध
तन की देहरी पर दिल की बात होगी
आओ अपने आंसू प्यासे पेड़ को दें दें
ज़िन्दगी रही तो, फिर बरसात होगी
बारिश का मौसम है। हर जगह बारिश ने कहर मचा रखा है। सड़कों पर सैलाब,ज़िन्दगी में सवाल बेहिसाब है। बावजूद इसके दूसरी और सियासी विकास का दावा करते हैं। मगर उनका विकास सीमेंट है। बकौल शायर कहता है-
वे कहते हैं सीमेंट ही रीवा में विकास है
घूसखोरी,कालाबाज़ारी,जुर्म भी इतिहास है
मंदाकिनी की बाढ़ देख थम नहीं रहे आंसू
स्ंगदिल सरकार कह रही, सावन मास है
लम्ही से शहर की झोपड़ी को मत आंकिए
वहां हयात संत्रास है,और यहां वनवास है
शायर ने तमाम शेरों में एंग्री पीढ़ी के अंदर के दर्द को रेखांकित किया है। उनके शेरों में फैटेसी भी है। शायर बदलाव और अकुलाहट को बयान करने वाला शायर है। कई जगह ऐसा लगा कि दुष्यंत की ग़ज़ल मैं पढ़ रही हूँ या फिर अदम गोंडवी को महसूस कर रही हूँ । पीड़ा,दर्द और सुख की अनुभूति हर कोई अलग-अलग और कभी कभी एक सा करता है।
शोहरत ज़रूरी है हयात में,पर खरीदी नहीं
जो शोहरत मिली थी,उसे कभी बेची नहीं
सुकरात की मौत मुझे,मरने नहीं देगा
मारना चाहता है,मुझे सिंकदर बनाकर
पांच साल बाद निकला,सियासी चांद
गांधीवाद के भेष में आया नक्सलवाद
संसद की मजबूरी,ये कह भी नहीं सकती
कुर्सी के लिए कौन दंगे फ़साद कराता है
लाश भूखी है और आदमी भी भूखा है,तेरे निजाम में
समझ में नहीं आता, किधर कैमरा घुमाकर देख लूं
इस ग़ज़ल संग्रह में मन के अंदर और बाहर के कैनवस में अलग- अलग तस्वीरें हैं। नयी पीढ़ी को शायर रमेश कुमार‘रिपु’ की ग़ज़लों के शेर किसी हिट फिल्म के डायलाग की तरह लगेगे। कुछ शेर तो पढ़ते ही मुंह से निकल जाता है वाह भाई वाह। आप भी पढ़ कर देखिये और को भी एक बार पढ़ने को कहिये।
दिव्या दुबे
विप्रो कंपनी, नई दिल्ली