
The voice of resistance to inconsistencies is the hunger of a full stomach
व्यंग्यकार डाॅ. प्रदीप उपाध्याय काफी अर्से से व्यंग्य लिख रहे हैं। अब तक उनके दस व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं। सामाजिक और राजनीतिक यर्थाथ की सतह पर उन्होंने जो देखा और अनुभव किया,उसे व्यंग्य के तवे पर रख कर पकाया है। व्यंग्य की भाषा सहज और गंभीर है। भाषा में संप्रेषणीयता का प्रवाह बना रहता है।
– संपादक
पाठक बदल रहा है। बदलना भी चाहिए। इसे बदला है अखबार सत्ता ने। पाठक कहानियां बड़ी पढ़ना चाहता है। मगर व्यंग्य के साथ उसका नजरिया कहानी और उपन्यास जैसा नहीं है। अखबार ने साहित्य की तमाम विधाओं को ब्लाउज की तरह छोटा कर दिया है। इसलिए लेखक भी अखबार के पैमानेे पर अपने लेखन को एडजस्ट कर लिये हैं। कहानियां छोटी छपने लगी हैं। और व्यंग्य भी लघुकथा के आकार में ढल गए। यानी पाकेट व्यंग्य। डाॅ. प्रदीप उपाध्याय का दसवां व्यंग्य संग्रह ‘भरे पेट की भूख’ सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को आधार बनाकर लिखा गया है। उन्होंने देश,राजनीति और समाज की घटनाओं को लघु कथा के रूप में ढाल कर टिप्पणियां की है। विसंगतियों के प्रतिरोध के स्वर की गूंज हर व्यंग्य में है।‘भरे पेट की भूख’ की रचनाएं अपने समय और परिवेश के अलावा सरकारी व्यवस्था, राजनीति एवं समकालीन मनुष्य की समस्याओं से रूबरू कराती है।
गलती का ठिकरा
इस संकलन में राजनीति और व्यवस्था से जुड़ी रचनाएं अधिक हैं।राजनीति में अंध भक्त का चलन चैंकाता है। अंध भक्त अपने अराध्य में अवगुण नहीं देखता। वह केवल अनुसरण करता है। उसी तरह राजनीति में है। ‘आज की विक्रम वैताल कथा’ शीर्षक की रचना से स्पष्ट है कि आज की राजनीति में हर कोई बलि का बकरा ढूंढ लेता है। अपनी गलती का ठिकरा किसी और पर फोड़ने का चलन चल पड़ा है। नये संसद भवन में शेर की मूर्ति को लेकर बहुत बवाल मचा। लेखक ने ‘शेर बहुत कंफ्यूजन में है’ के जरिये लोगों की सोच पर तंज कसा है। मैंने शेरों से पूछा, कि शेर साहब,आप जब सारनाथ में सौम्यता की मूर्ति बने रहे तो अब संसद भवन में आपको अपने मूल स्वरूप में आने की क्या जरूरत पड़ गयी। एक शेर ने कहा,कैसे आदमी हो तुम। तुम भी विपक्षियों की भाषा में बात कर रहे हो। तुम खुद ही सोचो,जहां सत्य अहिंसा की बात हो वहां कोई शेर कैसे दहाड़ सकता है।
चिंतनशील नजर
एक पाॅकेट व्यंग्य में लेखक कहता है,देखो व्यंग्यकार,जिस तरह से व्यंग्यकार का छपास रोग ठीक नहीं हो सकता,ठीक उसी तरह राजनीतिज्ञों का सत्ता रोग ठीक नहीं हो सकता। दूसरी पार्टी से आए लोगों को जब तवज्जो नहीं मिलती तो किस तरह थाली में छेद कर देते हैं,इसकी बानगी है ‘कितने आदमी थे’। डाॅ प्रदीप उपाध्याय अपनी रचनाओं में चिंतनशील नजर आते हैं। सरकारी काम दुनिया के आश्चर्य से कम नहीं हैं। कई बार पुलिया बन जाती हैं पर दिखाई नहीं देती है।तालाब खुद जाते हैं,मगर दिखते नहीं। यानी कह सकते हैं,कि सरकारी काम आश्चर्य पैदा करने के लिए ही होते हैं। जहां पुलिया की जरूरत नहीं है,वहां पुलिया बन जाती है।बिजली है नहीं,पर नल जल योजना से लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं।
जीवन की सच्चाई
सरकारी कार्यो की व्यवस्था को आइना दिखाया गया है ‘गजब उनके काम और गजब उनके तौर तरीके’ शीर्षक वाली रचना में। देश में ईडी के छापे से पता चला कि किस किस नेता के पास भ्रष्टाचार का पैसा है। ‘हाय पैसा वाह पैसा’ से लेखक ने बताया कि पैसा थक सकता है,मगर इंसान नहीं। सिकंदर ने ताबूत के बाहर अपना खाली हाथ दिखा कर दुनिया का बताया,कि सब कुछ यहीं रह जाता है। कोई लेकर नहीं जाता। बावजूद इसके पैसे की चाहत आदमी की जाती नहीं। ‘बाबूजी को ठंड क्यों लगती है’ के बहाने जीवन की सच्चाई की ओर इंगित किया गया है कि ढलती उम्र में यह सब स्वाभाविक है। ‘थोड़ी सी सीख हमसे ले लो’ यह कहती है कि व्यवस्था कभी अव्यवस्था का बोझ नहीं उठाती। विदेश के मंत्रियो से भारत के मंत्रियों को सीख लेनी चाहिए कि जरा सी बात पर इस्तीफा नहीं देना चाहिए। सरकार किसी भी मामले में जवाबदेही नहीं होती। चाहे रेल दुर्घटना हो जाए या फिर पेपर लीक हो जाएं।
मार्मिक चित्रण
‘भरे पेट की भूख’ संगह में सैतालिस व्यंग्य रचनाएं हैं। व्यवस्था की जवादेही जिन पर है वे कैसी-कैसी टुच्ची हरकतें करते हैं उसका मार्मिक चित्रण इस संग्रह में है। लेखक ने अपनी टिप्पणियों में लेखकीय नजर का भरपूर इस्तेमाल किया है। पेपर लीक होने की घटनाओं पर रोक लगाने का जो उपाय बताया गया है वो तरीका भविष्य में सरकार करने लगे तो आश्चर्य नहीं। ‘न रहेगी परीक्षा,न होंगे लीकेजेस’ व्यवस्था की लापरवाही का दस्तावेज है। जो बताती है,कि वो दिन दूर नहीं है,जब सरकारी पद भी ठेके पर सरकार देने लगेगी ताकि परीक्षा लीक के झंझट से बच सकें।
कई सवाल उठाए गए
इस किताब में छोटे- छोटे व्यंग्य के जरिये कई सवाल उठाए गए हैं। उन सवालों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। सरकार मंदिर,मस्जिद और स्कूल से सौ मीटर दूर दारू की दुकान नहीं होने का आदेश दे रखी है,मगर उसे अमल में नहीं लाया गया है। शराबियों के लिए रम है, तो क्या गम है। इसमें लेखक ने जिन विषयों पर कलम चलाया है,उनकी विचार धारा से बहुत लोग असहमत भी हो सकते है। मसललन ‘विकास तो होकर रहेगा’,आटे दाल का भाव और गरीबी में गीला आटा,हम तो पीकर रहेंगे,रिश्ता निभाते हम लोग,बड़ा अदम खोर कौन?महंगाई डायन पर नजर का तीर,सोनापापड़ी के पैकेट और त्योहार आदि ऐसी कई रचनाए हैं।
सरकारी अव्यवस्था की सच्चाई
चूंकि लेखक प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं,इसलिए इस संग्रह में ज्यादातर रचनाओं में उसकी तपिश है। ‘भरे पेट की भूख’ रचना सरकारी अव्यवस्था की सच्चाई है। लाख दावा सरकार करे, कि मुफ्त राशन बांटकर किसी को भूखा नहीं रहने दिया गया। सरकारी राशन भूखे पेट तक पहुंचा या फिर निजी राशन दुकान तक। इसे देखने वाली आॅंखें सरकारी व्यवस्था के पास नहीं है। इस समय विश्व गुरू की बात खूब हो रही है। उसका मजाक भी उढ़ाया जा रहा है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है,कि आदमी भले गांव का हो लेकिन अपना वैश्विक स्तर चाहे तो ऊंचा कर सकता है। न्यूयार्क नहीं गया है,मगर कह सकता है,कि अगले माह न्यूयार्क जा रहा हूंू। गांव के लोग अपने कार्यक्रम को अन्तरराष्ट्रीय नाम देकर बढ़ा कर रहे हैं।
अपने इर्द गिर्द के जीवन की हलचल पर तीखी टिप्पणी से अंत तक पाठक को यह किताब बांधे रखती है।
किताब – भरे पेट की भूख
लेखक – डाॅ प्रदीप उपाध्याय
प्रकाशक – किताब गंज
कीमत -350 रुपए
समीक्षक – रमेश कुमार ‘रिपु’