
Life ban on guilty politicians quite rigorous
नई दिल्ली (ब्यूरो)। बस्तर जिले के छिदवाड़ा गांव में रमेश बघेल के पिता पादरी थे। उनकी मौत हो जाने के बाद रमेश बघेल की इच्छा है कि उनके पिता का शव आदिवासियों के कब्रिस्तान में दफनाया जाए। लेकिन गांव वाले इसका विरोध कर रहे हैं। गांव वालों का तर्क है आदिवासी से ईसाई हो जाने के बाद वो पादरी थे। एक ईसाई पादरी का शव हम अपने कब्रिस्तान में नहीं दफनाने देंगे। छत्तीसगढ़ सरकार भी इसके पक्ष में नहीं है। हाई कोर्ट ने भी आदिवासियों के कब्रिस्तान में रमेश बघेल के शव को दफनाने की इजाजत नहीं दिया है। हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ रमेश बघेल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर किया है। उसके पिता का शव 15 दिनों से मूर्दाघर में है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा है। मामला ऐसा है।
मृतक एक धर्मांतरित ईसाई थे
मृतक एक धर्मांतरित ईसाई थे जो पादरी के तौर पर काम करते थे। 7 जनवरी को उनकी मौत हो गई। मृतक के बेटे रमेश बघेल अपने पिता को पैतृक गांव छिंदवाड़ा में उस कब्रिस्तान में दफनाना चाहते हैं जहां उनके पूर्वज दफनाए गए हैं। छिंदवाड़ा बस्तर जिले का एक गांव है। गांव वाले ईसाई शख्स को हिंदू आदिवासियों के लिए बने कब्रिस्तान में दफनाने का विरोध कर रहे हैं। इसके बाद बघेल ने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का रुख किया। हाई कोर्ट ने भी इजाजत नहीं दी। 7 जनवरी से ही शख्स का शव मुर्दाघर में पड़ा हुआ है। मृतक के बेटे ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है जिस पर कोर्ट ने बुधवार को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।
पैतृक गांव में पिता को दफनाना चाहते हैं याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ता की दलील है कि छिंदवाड़ा गांव के कब्रिस्तान में ईसाई लोगों के लिए एक हिस्सा है, जहां पहले उनके परिवार के अन्य लोगों को दफनाया जा चुका है। दूसरी तरफ, राज्य सरकार की दलील है कि गांव का कब्रिस्तान हिंदू आदिवासियों के लिए है। राज्य सरकार की दलील है कि मृतक को 20-25 किलोमीटर दूर करकपाल नाम के गांव स्थित कब्रिस्तान में दफनाया जाए जो ईसाइयों का कब्रिस्तान है। इसके लिए प्रशासन की तरफ से एंबुलेंस भी मुहैया करा दी जाएगी।पूरा मामला धार्मिक भावनाओं, दफनाने के अधिकार और सामाजिक सद्भाव के बीच टकराव का है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सुनवाई के दौरान कहा कि मृतक के सम्मानजनक अंतिम संस्कार के अधिकार को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए और मामला आपसी सहमति से सुलझाया जाना चाहिए।
महरा जाति के कब्रिस्तान में हिंदू
याचिकाकर्ता का तर्क है कि छिंदवाड़ा गांव में एक कब्रिस्तान है जो पारंपरिक रूप से ग्राम पंचायत द्वारा आवंटित किया गया है। इस कब्रिस्तान में आदिवासियों और अन्य जातियों (महरा) के लिए अलग-अलग जगह है। महरा जाति के कब्रिस्तान में हिंदू और ईसाई समुदाय के लोगों के लिए अलग-अलग जगह चिह्नित है। याचिकाकर्ता की चाची और दादा को भी इसी ईसाई क्षेत्र में दफनाया गया है।
इससे पहले, छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने कहा कि छिंदवाड़ा गांव में ईसाइयों के लिए कोई अलग कब्रिस्तान नहीं है। उनके लिए लगभग 20-25 किमी दूर करकपाल गांव में एक अलग कब्रिस्तान उपलब्ध है। हाई कोर्ट ने माना कि पास के इलाके में ईसाई समुदाय का कब्रिस्तान उपलब्ध होने पर याचिकाकर्ता को राहत देना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे जनता में अशांति और वैमनस्य फैल सकता है।
याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्वेस ने राजस्व मानचित्रों का हवाला देते हुए तर्क दिया कि ऐसे कई मामले हैं जहां ईसाई आदिवासियों को गांव में ही दफनाया गया है। उन्होंने कहा कि इस मामले को अलग तरह से इसलिए देखा जा रहा है क्योंकि व्यक्ति धर्मांतरित था। उन्होंने राज्य द्वारा दायर जवाबी हलफनामे का हवाला देते हुए बताया कि राज्य ने इस तर्क को स्वीकार किया है कि एक धर्मांतरित व्यक्ति को गांव में दफनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। गोंसाल्वेस ने तर्क दिया कि यह ‘स्पष्ट भेदभाव’ है जिसके परिणामस्वरूप मृत व्यक्ति का ‘सांप्रदायीकरण’ हुआ है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में दलील दी, ‘मान लीजिए कि कल को कोई हिंदू ये तर्क देने लगे कि वह अपने परिवार के मृतक को मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाना चाहता है क्योंकि उसके पूर्व मुस्लिम थे और धर्मपरिवर्तन करके हिंदू बने थे तो स्थिति क्या होगी? राज्य के दृष्टिकोण से ये पब्लिक ऑर्डर से जुड़ा मुद्दा है। आर्टिकल 25 के संदर्भ में पब्लिक ऑर्डर एक अपवाद है।’हालांकि, गोंसाल्वेस ने मेहता की दलील के विरोध में जोर देकर कहा कि याचिकाकर्ता अपने पिता को वहीं दफनाएगा जहां उनके पूर्वजों को दफनाया गया है। उ