
Shubhankar you go
गहन सामाजिक विमर्श की कहानियां लिखती हैं पूनम मनु । इनकी कहानियों की लेखकीय भावुकता पाठक को भी भावुक कर देती है। कहानी के हर पर्दे में मनः स्थितियों की अलग अलग तस्वीर होकर भी एकाकार है। पुनम मनु की कहानियों के भीतर रिश्तों का स्वेटर कई रंगों के ऊन से बुने हैं। लेकिन कोई भी ऊन किसी दूसरे से उलझता नहीं। ‘शुभांकर तुम जाओ’ कहानी प्यार और दोस्ती को पुरुष के नजरिये से रेखांकित करती है। कहानी में सुखद आश्चर्य यह है कि यहां स्त्री के मन में सो रहे प्यार का दरिया अपने परिवार की खातिर साथी को पाकर बहता नहीं। मगर आकुल पुकार की आवाज मन के कान सुन लेते हैं। यह कह सकते हैं कि नए दौर में अब भी मुहब्बत की अपनी तहजीब है।
शुभांकर … तुम जाओ !
घर के दरवाजे पर पहुँच कर भी जाने कितनी देर तक यूं ही निहारती रही वह… अपनी गली के अंतिम छोर को। मानों उसके वहाँ होने को वह अब भी अनुभूत कर रही थी। उसी अवस्था में रहती अभी और यदि उसी क्षण उत्कट हवा का एक झोंका उसके चेहरे से न टकराया होता। चेतना-सी लौटते ही उसने एक गहरी उत्तुंग श्वास छोड़ी। कई बार अपनी पलकें झपकाई … और फिर आहिस्ता से घर में प्रवेश कर मुख्य द्वार बंद कर लिया।
दो घड़ी थमी रही वहीं। जस की तस। घर को अंदर से सर्वतोभाव एक नज़र देखा उसने। बाद इसके शिथिल कदमों से अंदर अहाते में आ गई। इतनी क्लांत जैसे… मीलों दूर चलते उसके पाँव थक गए हों।
रात धरती पर उतर चुकी थी । नरेश किसी भी वक़्त आते होंगे, सोचते ही… वह रसोई की ओर मुड़ गई।
मन से उठते, मनीषिका से टकराते सभी विचारों को उसने दिमाग से झटककर खाना बनाने में अपना ध्यान लगाया और नरेश के आने से पहले ही खाना तैयार कर लिया। बाद इसके वह बच्चों का होमवर्क कराने में उनका साथ देने लगी। वह नहीं चाहती थी कि नरेश उसकी अस्थिर मनःस्थिति को भाँपते ही तरह-तरह के सवाल पूछें ।
आज देर से घर लौटे नरेश। उनके लौटने तक वह बच्चों को भोजन कराकर सुला भी चुकी थी।
सूजी पलकों और लाल आँखों के लिए उसने माँ की याद का बहाना बनाया। नरेश, माँ से उसके अटेच्मेंट को अच्छे से समझते थे। उन्हें पता था कि माँ को लेकर अक्सर वह भावुक हो जाती है। उन्होंने तसल्ली देते हुए अपने वही शब्द दोहराए जो वो हमेशा ही कहते थे, “ज़्यादा मत सोचा करो… सभी को जाना है एकदिन।”
नरेश के भोजन करते तक सब कुछ ठीक है जैसा जताने में सफल रही वह। इस दौरान नरेश ने अपने सारे दिन की ज़रूरी बातें उसके साथ शेयर कीं। जो वो सदा ही करते थे पर सिर्फ वही बातें, जो वो … बताना चाहते थे। उसने भी कृत्रिम हंसी के प्रभाव से उन्हें अपने मन की बोझिलता से दूर ही रखा।
कितना मुश्किल होता है सहन करना एक पुरुष … ख़ासकर पति के लिए कि उसकी पत्नी किसी दूसरे पुरुष के विचारों में मग्न हो उसे भूल बैठे । पुरुष भी वह जो हर स्थिति में उससे बेहतर हो। तब तो कतई नहीं।
भोजन कर नरेश बेडरूम में चले गए। वह भी रसोई के बाकी काम निबटाने लगी। काम निबटाते कनखियों से देखा उसने, बेडरूम की लाइट जली हुई थी… यानि नरेश उसका इंतज़ार कर रहे थे । ओफ! उसका मन रोने को करने लगा। मन इतना गमगीन था कि इस स्थिति को वह इस समय बिल्कुल भी नहीं चाहती थी।
पुरुष जीवन कितना बढ़िया ! ख़ुद की मर्ज़ी। जब जी चाहे तब … और जब जी न चाहे तब नहीं । औरत कितनी लाचार! उसकी मर्ज़ी की ‘हाँ’ पुरुष को हर हालत में चाहिए। चाहे स्थिति कैसी भी क्यूँ ना हो। थोड़ा भी ध्यान भंग होते ही एक उलाहने –“आज तुम्हारा ध्यान कहाँ है ?” जैसी चपाट उसके नाज़ुक मन समेत उसकी आत्मा पर पड़ती है। वो लाचार, अक्सर चाहे न चाहे… अपनी इच्छा शामिल करती ही है ताकि पुरुष कामनीय सुख को तन-मन और आत्मा से पूर्णतः महसूस कर सके।
उसका दिमाग और शरीर हल्का हो चुके तो फिर उसे इससे कुछ लेना-देना नहीं कि क्या और कैसे हुआ। सुख की नींद सो पाएगा तभी तो वो आगे की सोचेगा! दूसरे दिन काम पर जाएगा … वरना बिना इसके सब रुका-सा।
औरत का क्या … उसे कौन सा पहाड़ तोड़ने हैं। ऑफिस भी जाएगी तो कौन-सा उसे दुनिया से कुछ अलग करना होता है । और यदि घर में रहे तो फिर उसकी अहमियत ही क्या…?
मन वितृष्णा से भर गया।
क्या उसे जाना पड़ेगा ही? सवाल दिमाग में कुलबुला ही रहा था कि तभी नरेश की आवाज़ उसके कानों से टकराई- “सावी यार ! क्या कर रही हो, जल्दी आओ …..!”
वह जानती थी। दो दिन हो चुके हैं, आज तो मानेंगे ही नहीं… ऊपर से मम्मी-पापा भी घर में नहीं हैं। ऐसे मौके को नरेश कभी नहीं चूकते। पर आज वह नहीं ही जाएगी जब उसका मन नहीं है तो!। भले नरेश चिल्लाते रहें। वह चुप हाथ-मुँह धोने में समय को लंबाती रही।
‘यूँ… कहने को औरत की स्थिति समाज में आज कितनी ही मजबूत क्यूँ न हो… पर ‘यह स्थिति’ कभी बदलेगी उसे नहीं लगता। सभी प्रकार की बाध्यताओं के बाद भी। औरत और भी ज़्यादा यहीं मजबूर है।’ सोचते ही उसका मन किलस उठा। जहां उसे अपनी मजबूरी पर अब आँसू बहाने चाहिए थे। वहीं जैसे कोई कीड़ा उसके दिमाग में घर कर गया… वह मन ही मन बड़बड़ाई- ‘बाकी औरतें मजबूर हों तो हों। वह नहीं होगी!!!’
नरेश के बार-बार आवाज़ देने पर वह वहीं से ज़ोर से चिल्लाई… “जानते हो न… मैं कभी मना नहीं करती। पर आज मेरा मन नहीं!!!”
मना करने को तो कर दिया उसने पर वह भीतर से भली-भांति जानती थी इस बात पर नरेश अब कई दिन तक मुंह फुलाए रखेंगें। उसे ताने मारेंगे।
“रखेंगे तो रखें… नहीं, तो नहीं!” वह जैसे किसी ज़िद से भर गई थी।
आध घंटे की अवधि को वाशबेसिन में यूँ ही बहाकर जब तक वह लौटी तब तक नरेश गहरी नींद की आगोश में समा चुके थे। उनके गहरी नींद में होने के पुख्ता प्रमाण के लिए उसे उनके गूँजते खर्राटों की आवाज़ पर ध्यान देने की आवश्यकता न थी। क्योंकि नरेश बिस्तर पर लेटते ही गहरी नींद में चले जाते थे। कई पल वह खड़ी नरेश को अपलक देखती रही..बेवजह। तंद्रा-सी भंग हुई तो उसने भी अपना तकिया ठीक किया और उसपर सोने को अपना सिर टिका दिया। पर…पर… आज उसकी आँखों में नींद क्यों नहीं? क्यों? कहाँ गई? आज कौन ले गया उसे…कौन…? किसके पीछे दौड़ पड़ी है पागल…ये उसका चैन लेकर…
बेचैन मन के साथ सब आकुल… सब…। कैसे चैन पड़े… कौन-सी गलियों में पाया जाता है सुकून… बताये कोई…? हा…।
बीते को खोलने पर मिले कुछ… क्या पता किसी सीपी में बंद पड़ा हो चैन….! हाँ, वही होना चाहिए… वहीं, बिल्कुल वहीं…. नैनीताल में। जहां पर खोया…. स्यात वहीं मिले…
नैनीताल…. भारत देश का एक बड़ा पर्यटन स्थल। जहाँ पर देश-विदेश के सैलानी अपनी छुट्टियाँ बिताने पहुँचते हैं। सुंदर और लुभावना नैनीताल …
जहाँ उसकी मौसी का घर था। जहाँ उसकी मौसेरी बहन दीपा रहती थी। वही दीपा जो दुनिया की सबसे प्यारी बहन होने के साथ-साथ उसकी सखी भी थी। यूं तो दीपा उम्र में उससे दो-तीन साल बड़ी थी पर दोनों के लिये ही उम्र का ये फासला महत्वहीन था।
मौसी के घर से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर ही दीपा की बड़ी बहन यानि रचना दीदी का घर था। यूं तो उनका विवाह किसी गाँव में हुआ था। किन्तु, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की ख़ातिर शहर में रहना उनकी मजबूरी बन गई थी। इन दिनों जीजा जी की पोस्टिंग केरल में थी।
रचना दीदी के घर में रहने का अपना अलग ही आनंद था। घर में कोई भी पुरुष नहीं होने की वज़ह से जहाँ उन्हें हर प्रकार से रहने की स्वतन्त्रता थी। वहीं, दीदी का पूरा ध्यान भी उन्हीं की ओर लगा रहता था। —और लड़कियों को क्या चाहिए… सारा दिन गपशप, अपनी मर्ज़ी का बनाना, खाना। नाचना गाना फुदकना …. चिड़ियों समान ।
उसे भी बचपन से नैनीताल बहुत भाता था। इसलिए जब भी उसे मौक़ा मिलता था वह नैनीताल पहुँच जाया करती थी।
कितने सुहाने दिन थे वो, लड़कपन के… वह सोच रही थी। बीते को यूं ही बीत जाने का मलाल अधिक घना इस घड़ी। आह! इतना वक़्त बीतने के बाद भी कितना तो रे खरा… सब मन के आँगन में ।सब कुछ जीवंत… कुछ भी धुँधला नहीं… वह भी, जब माँ की चिरौरी कर मामा के साथ वह मौसी के घर, सर्दियों की छुट्टियाँ बिताने पहुंची थी———
“सावी…. ” देखते ही चहक उठी थी दीपा ।
कैसे लपक कर उसके गले जा लगी थी वह। कितनी ही देर तक खड़ी रहीं दोनों एक दूसरे को अपने गले से लगाए।
चलचित्र चलायमान था। तेज़ गति न थी। हौले-हौले। आँखों पर गिरी पलकों तले….
शाम होते ही रचना दीदी की ओर चलने को उतावली वह कैसे वहाँ पहुँचते ही भौंचक रह गई थी याद आया उसे….
-“साबू! ये शुभांकर हैं, केरल से आए हैं… शुभांकर, ये सावी है, मेरी मौसी जी की लड़की। दिल्ली से आई है। दसवीं में है इस बार।”
किसी अजनबी लड़के को वहाँ देख वह एकदम से अचकचा-सी गई थी। मन क्षोभ से भर गया… औपचारिकतावश अभिवादन का उत्तर देना आवश्यक था। न देती यदि दीदी के मान का सवाल न होता। पढ़ा-लिखा शुभांकर…. उसने जब उसकी पढ़ाई-लिखाई से बावस्ता कुछ पूछना चाहा तो वह दीपा को घूर बैठी। समझदार दीपा बचाव का रास्ता अख़्तियार करते हुए उसे दूसरे कमरे में ले आयी थी।
-“कहाँ से आया है ?”उसके दिमाग से शायद निकल गया था कि- वह केरल से आया था। चिढ़चिढ़ाहट उभर आई मुखड़े पर।
वह उसके सवालों से मन ही मन खीज उठी थी या कि दीदी के यहाँ सर्दियों की छुट्टियाँ मज़े से बिताने का अपना प्लान उसे किसी अजनबी को घर में पसरा देख, खटाई में पड़ता दिखाई दे रहा था। पता नहीं क्या था। बात जो भी हो पर… उसका दीदी के घर में रहना उसकी आज़ादी में ख़लल डालने वाला ज़रूर था। यह सोचकर ही, उसके प्रति उसके मन में गुस्सा-सा भर गया था।
-“बड़ा इंटेलिजेंट बन रहा है।”
-“यार…तूने ध्यान से नहीं देखा उसे। कितना स्मार्ट, कितना इंटेलिजेंट है वह। बी एस सी फाइनल कर चुका है। किसी परीक्षा के सिलसिले में जीजा जी ने इसे यहाँ भेजा है। जीजा जी का इनके यहाँ केरल में काफी आना-जाना है । यह तो सारा दिन पढ़ता रहता है । कौन आया, कौन गया इससे इसे कोई मतलब नहीं होता। बस अपने पढ़ने में मस्त रहता है।” उसकी फूंफकार पर पानी डालना चाहा दीपा ने।
– “तू, रहने दे… उसकी तरफ़दारी करने को। देख लिया कितना इंटेलिजेंट है।” उसने मुँह बिचकाया।
उसका बिचका मुँह देखकर दीपा खूब हँसी और बोली- “चल छोड़! हमें क्या… जब हमसे पंगे लेगा तो देख लेंगे। तू टेंशन मत ले।”
बाद इसके… इधर की बात… उधर की बात…. और न जाने किधर-किधर की बात… गौरेयाँ बतलाती रहीं। समय के पहिये को नज़रअंदाज़ करते हुये। चहचाहट से भरपूर घर जगमग जगमग… गहराती रात गहराई और तारों की छांव के तले उगते सूरज का पता पंछियों के गान से चला। कमरे की खिड़की में झाँकने को उतावले चाचा सूरज को थोड़ी देर बाद आने को कहती हुई दोनों ही तकियों को आँखों पर रख नींद की गोद में समा गईं। दोपहर को आँखें खुली तो पेट में चूहे डिस्को कर रहे थे।
इसी तरह की मनमानियों, मनमरजियों के साथ मस्ती मारते उसकी छुट्टियाँ कब बीत गईं उसे पता भी नहीं चला।
शुभांकर को उसने पूरी तरह से इग्नोर कर दिया था। सामना होने पर यदि वह कुछ पूछना भी चाहता तो वह उसका आधा-अधूरा सा अनमने ढंग से जवाब देकर वहाँ से चली जाती।
विदाई की घड़ी में… बड़ा अजीब था बस स्टॉप पर शुभांकर का उससे उसके घर का पता मांगना। इच्छा तो न थी किन्तु मौसाजी के इशारे पर उसने उसे घर का एड्रेस नोट करा दिया।
‘दिल्ली भारत की राजधानी होने के कारण सबके आकर्षण का केंद्र तो है ही, इससे ज़्यादा यह उन लोगों के ठहरने की माक़ूल जगह भी है जिन्हें देश विदेश में जाने के लिए बस, ट्रेन या हवाई यात्रा करनी होती है। इसलिए लोग ऐसे रिश्तेदार या परिचित का पता अपने पास रखना ज़रूरी समझते हैं जो दिल्ली, ख़ासकर ऐसी जगहों के नजदीक रहते हैं जहाँ से यात्रा के लिए साधन आसानी से सुलभ हों।’ ऐसा ही कुछ शुभांकर के साथ भी होगा… पता देते सोचा उसने।
कई दिन साथ रहने के बाद भी उसने शुभांकर को नज़र भर देखा तक नहीं था। बावजूद इसके वह उसे छोडने बस तक आया … ये देख उसका दिल उसके प्रति सम्मान से भर गया। सारी खटास जाती रही। जो अकारण ही थी। बस में उसका लगेज ऐसे सेट किया उसने जैसे वह उसकी ही कोई रिश्तेदार हो। पश्चात इसके बस से उतरते जब उसने ‘आल द बेस्ट एंड टेक केयर’ कहा तो कुछ भीग गया भीतर। उसको भी दो दिन बाद केरल लौटना है- बताया था उसने।
‘वह कितनी बुरी है…’ खीज उतर आयी स्वयं पर। किंचित तरल भाव उसके लिये हृदय में हिलोर उठा।
अरे! शुभांकर तो वाक़ई बहुत स्मार्ट है। खिड़की से दूर तक हाथ हिला-हिला मुसकुराती रही तब तक… जब तक दिखता रहा वो।
जीवन व्यस्तताओं भरी एक भूल-भुलैया। दिल्ली आते ही वह भी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गई। वार्षिक परीक्षाएँ सिर पर थीं। इसके अतिरिक्त कुछ भी सोचने समझने की फुर्सत न थी।
दसवीं के बाद बारहवीं और बारहवीं के बाद बीए किया उसने। इस दौरान वह कई बार नैनीताल आई गई … याद रखने की इच्छा में यदि शिद्दत न हो तो जल्द ही भूल जाते हैं लोग। ऐसे ही शुभांकर भी उसकी स्मृति से लोप हो गया। उसकी कोई चर्चा, कोई जिक्र कहीं नहीं था। वह तो अनपेक्षित-सा बस अपनी किसी परीक्षा के सिलसिले में आया था और चला गया था।
दिन बीतते रहे। आखिर वह दिन भी आया जब उसके घर वालों ने उसका रिश्ता पक्का कर दिया। वह इतनी जल्दी शादी के पक्ष में नहीं थी। कुछ बनने के सपने नैनों में थे। कई बार शादी से इंकार किया उसने। किन्तु, किसी ने भी उसकी एक नहीं सुनी।
उसके पिता के निधन के पश्चात उसकी माँ ने अपने चारों बच्चों को बड़े कष्ट से पाल-पोसकर बड़ा किया था। उससे बड़े दो भाई व एक बहन की शादी वे कर चुकी थीं। असमय मिले बुढ़ापे और प्रतिदिन बढ़ते इसके रोगों से आतंकित वे चाहती थीं, कि अब उसकी शादी भी जल्द हो जाये ताकि अपने सारे फर्ज़ पूरे कर, वे इस दुनिया से आराम से विदा लें। अतः उनकी इच्छा का मान रखा गया।
रिश्ता तय था। तय समय पर बारात आई, सबके अरमानों को अपने अरमान समझ, सबसे विदा हो, वह अपने ससुराल गुड़गांव चली आई…।
ससुराल… गाय बेटी के लिये दूसरा बाड़ा।
निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार में एक जेठ-जेठानी, एक ननद-ननदोई, सास-ससुर, पति नरेश और वह। छोटा-सा परिवार…. शादी के बाद सभी रिश्तेदारों के साथ-साथ ननद व जेठ भी अपने-अपने घर लौट गए। कुल मिलाकर सब ठीक-ठाक-सा ही था।
पति नरेश सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। सभी ज़िम्मेदारियाँ अच्छे से निभाती वह जल्द ही परिवार में घुल-मिल गई। पति की चहेती तो वह बनी ही सास की प्यारी भी हो गई।
समय की गति कितनी ही मंथर क्यों न हो किसी भी रिश्ते का शुरुआती आकर्षण इतना प्रभावशाली होता है कि समय तेज़ी से भागता दिखता है। नयी ज़िंदगी के रहस्यमयी सन्दूक और इन संदूकों में उसके वास्ते क्या- इससे अनभिज्ञ वह तो बस…. वक़्त रूपी हँस पर बैठी उड़ रही थी। और इस समय उसके पंख सुनहरे थे… बहुत सुनहरे … बिलकुल किरणों समान….
शादी के डेढ़ साल बाद एक प्यारी-सी गुड़िया को जन्म दिया उसने । बिलकुल परी-सी।
सब कुछ भूल वह सारा दिन उस मासूम परी की देखभाल में लगी रहती। बहुत ख़ुश थी वह अपनी नन्ही परी के साथ। अब उसे अपने सभी पुराने सपने और सभी पुरानी इच्छाएँ बेमानी-सी लगने लगी थीं। जीवन के मायने उस परी ने बदल जो दिए थे।
किस्मत मेहरबान रही बेटी के बाद एक बेटा भी उसकी झोली में ईश्वर ने डाल दिया। दोनों रत्नों से सजी उसकी झोली….
सबकुछ ठीक ही था। ज़िंदगी अपनी रफ़्तार पकड़ चुकी थी। या यूँ कह लें कि वक़्त की रफ्तार से कदम से कदम मिलाने की कोशिश में वह बेचारी अब दौड़ लगा रहा थी।
इसी दौड़ते वक़्त में एक बार जब वह माँ के पास दिल्ली गई तो माँ से बातों ही बातों में एक डाकिये का ज़िक्र चल निकला, कि एक फलां… डाकिया था, वह लोगों के ज़रूरी या गैर-ज़रूरी पत्र कभी भी समय पर उन तक नहीं पहुँचाता था, चाहे वो किसी के इंटरव्यू का बुलावा हो या शादी का पैगाम।
माँ उसे बुरा-भला कहे जा रहीं थीं कि-“उस कमबख़्त ने कई बार तो तेरे जीजा जी के पत्र भी तेरी दीदी तक नहीं पहुंचाए थे, जिस कारण उनके रिश्ते में कई गलतफहमियाँ पनप गईं थीं जिसकी वज़ह से उन्हें कई सालों तक विछोह का दुख सहना पड़ा।”
इन्हीं बातों के विस्तार में माँ ने बताया कि दूसरा डाकिया जो उसकी जगह आया था। वह बहुत अच्छा व्यक्ति था। तेरे भैया का काम तो वह झटपट कर देता था।
विगत सदा बुरा ही हो ज़रूरी तो नहीं। कुछ रस भरा भी होता है। आश्चर्य से भरी वह भी जानी-अनजानी बीती बातों को सुन-सुन बहुत आनंदित हो रही थी कि तभी माँ ने वह बताया जो शायद उन्हें अब नहीं बताना चाहिए था।
या…. ये कि उन बातों का ज़िक्र कर अब बेवज़ह बस दु:खी हुआ जा सकता था। जो माँ समझ न सकी हों। हो सकता है माँ के लिये वह अब कोई महत्व की बात न रही हो और ये बात भी कि वो बातें अब उनकी नज़रों में ऐसी नहीं थीं कि जिनका उस पर कोई असर होने वाला था। या… ये भी कि-वो इसे भी बस गुज़रे वक़्त के आनंद के तौर पर ले रही थीं।
खैर….. जो भी हो, इस बात को सुन वह सन्न रह गई जब माँ ने बताया- “साबु तुझे पता है…? तेरे नाम के बहुत से ख़त कई सालों तक केरल से आते रहे। कोई लड़का था शुभांकर… वह भेजता था। पर, तेरे भाइयों ने वो ख़त कभी तुझ तक पहुँचने ही नहीं दिये। वो…डाकिया वे ख़त चुपचाप लाकर तेरे भाइयों को दे देता था।”
“हें…” ठोढ़ी पर हाथ रखे वह ठगी सी रही कई घड़ी। खत….!!! कुछ आभास-सा हुआ…. डर और लज्जा से मुख भर गया… हे भगवान! कैसे खत थे वे…? भाइयों के सामने मेरी क्या इमेज रही होगी उस समय…. माँ ने क्यों बताया। अच्छा होता न बतातीं। शर्म से भर-भर उठी।
-“ जानती है…? उनमें तेरे लिये हमेशा अच्छी बातें ही लिखी होती थीं मसलन –‘तुम ख़ूब पढ़ो। तुम कुछ बन सकती हो। तुममे कुछ बनने की क्षमता है आदि-आदि। कभी अपनी पढ़ाई और नौकरी की कोशिश का ज़िक्र होता था तो कभी किसी रिश्तेदार के आने या उसके वहाँ जाने का ज़िक्र होता और अंत में जवाब देने का आग्रह।”शर्मिंदा-सी वह कुछ पूछती उससे पहले ही माँ ने अपनी बात पूरी की।
सुनकर बड़ी तस्कीन हुई उसे कि चलो… कोई दीवानगी टाइप, प्रेम-पत्र जैसे ख़त नहीं थे वो। वरना उसकी छवि तो पूरे परिवार की नज़रों में ख़राब चुकी होती ।
जिस अच्छी छवि को वह अपने होश संभालने के साथ ही बनाती, संभालती आई थी। उसे वह किसी भी क़ीमत पर ख़राब होते नहीं देखना चाहती थी। अपने पिता को दिये वचन की ख़ातिर वह बालपन से ही इस बात का बहुत ध्यान रखती थी कि उसके चरित्र पर कभी भी कोई उँगली न उठा सके।
यथा…इमेज की जो बात थी वह पूरी तरह सुरक्षित थी। इसका भान होते ही उसका दिमाग शुभांकर की ओर दौड़ने लगा। शुभांकर … स्मृतियों में उथल-पुथल मच गई।…मानसपटल पर एक धुंधली-सी तस्वीर उभरी।
माँ ने नैनीताल का ज़िक्र किया तो उसे सब याद आ गया। बेसाख्ता उसके मुख से निकला, “अच्छा वो … शुभांकर !” पर धूमिल चेहरा धुंधला-सा ही रहा।
….वह उसे ख़त क्यूँ लिखता था ? अनेक सवाल उसके मनो-मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगे।
माँ से जानना चाहा तो माँ ने कहा-“हो सकता है, तुझसे दोस्ती-वोस्ती करना चाहता हो। तू दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर मत डाल। छोड़ उसे…. देख जरा बच्चे कहाँ हैं… उन्हें संभाल।”
माँ ने क्या कह दिया आज…आह! इतना आसान है क्या सब छोडना… वैसे भी उसने कुछ पकड़ा ही कब था… जो अब छोड़े… बच्चे संभाल… ! वही तो संभाल रही थी वह अभी तक… बिना किसी भी शिकवे के… पर आज क्या जरूरत पड़ी ये कहने कि बच्चे संभाल… कुछ बुरा लगा… क्या…? नहीं जान सकी….
पर…ये शुभांकर के ख़त… !!! इनका क्या करे…? ठंडी रात में भी बिस्तर सुलग उठा… इतनी बेकली…
वह उसे खत क्यूँ लिखता था… क्यों…? ऐसा क्या था जो उसने उसे कई वर्षों तक ख़त लिखे, बिना उसका एक भी जवाब पाये … क्यूँ … ? क्या बात थी … ? उलझे ऊन के इस गुच्छे का कोई सिरा उसके हाथ में नहीं था फिर भी उसके दिल और दिमाग थे कि उसी में उलझे हुये थे।
छुपाव का घाव भी अधिक तीखा और कष्टकारक…. अंतर्घट में रह रह रिसता रहा…
उसे बुरा लग रहा था कि उसके ख़त उससे लगातार छुपाए गए। किसी ने उसे ख़त लिखे और उसे पता भी नहीं! एक नहीं, दो नहीं बल्कि अनगिनत।
वो वक़्त जो केवल उसके लिए था, उससे छीना गया। क्यूँ…? भाइयों पर उसे बहुत गुस्सा आ रहा था कि जब ख़त साफ़-सुथरे थे तो उसे दिये क्यों नहीं। इतने वर्षों बाद… इस बात का पता उसे आज अचानक लग गया वरना ये राज़ तो हमेशा के लिए दफ़न ही हो चुका था ।
कौन करेगा इस सबकी भरपाई…!!! एक घटना जो उसको लेकर घटित हो रही थी वह ख़ुद उससे पूरी तरह अंजान थी। और अंजान रही इतने बरसों तक… ! वह बेचैन हो उठी।
दुनिया में कोई ऐसा नहीं जो किसी को बेवजह ख़त लिखे … तो क्या प्रेम… वह सोचती रही …
नींद आँखों से कोसों दूर थी। उसे अपने आप में कुछ अजीब तरह का एहसास हो रहा था जो उसे चैन न लेने दे रहा था। वह होंठो ही होंठो में बुदबुदा उठी–
“शुभांकर… शुभांकर … तुमने इतने दिनों तक मुझे ख़त लिखे … और वो मुझ तक नहीं पहुँचे। पता नहीं उनका जवाब न पाकर तुम्हें कैसा लगता होगा ! कितनी मायूसी… कितनी नाउम्मीदी… ओह! उसे लगा जैसे… जैसे… शुभांकर उसका प्रेमी है और वह उसकी बिरहन …!!! उफ़्फ़! उसका सर फटने को हो चला। उसके लिए उसके मन में करुणा का एक सागर उमड़ आया और उसी में से छलक कर नयनों से गरम पानी की एक अविरल धारा बह निकली । बहुत-बहुत देर तक।
न जाने किस पहर उसकी आँख लगी।
बच्चों के जगाने पर जागी आज… लाल आँखें और भारी सिर। एक पल को लगा समूची पृथ्वी घूम रही है। उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई । बच्चे नाश्ते और दूध की गुहार कर रहे थे। उनकी गुहार पर उसे वास्तविकता का आभास हुआ। वह तेजी से उठ बैठी।
बच्चों के नाश्ते के बाद उनका नहलाना-धुलाना, घुमाना-फिराना, पढ़ाना-लिखाना दिन कैसे गुज़र गया उसे पता भी नहीं चला। दिनभर शुभांकर उसकी सोचों से परे था। व्यस्त मनुष्य स्वयं को भूल जाता है। ऐसे में कौन किसे याद रहे।
रात आयी और एकांत भी…. बच्चों को सोते ही शुभांकर की यादों ने फिर उसके मन मस्तिष्क का दर खटखटाया….
वह यादों के मुहाने पर थी। वक़्त की डोरी को थाम वह धीरे-धीरे आगे बढ़ ही रही थी कि तभी उसकी नज़र अपने सोते नन्हें बच्चों पर गई। शुभांकर के आने से पहले उसके विचारों में एक विराम-सा आया। सोते बेटे का सलोना मुखड़ा उसने बड़े प्यार से निहारा और उसके चौड़े ललाट को स्नेह से चूम लिया। ममत्व की वर्षा होने लगी।
शुभांकर की याद फिर उसके जेहन में उतरती और उसके साथ ख़्यालों में कहीं दूर तक वह बह निकलती उससे पहले ही उसकी चेतना ने उसका दामन मज़बूती से थाम लिया। वह खुद को तसल्ली देते हुए जैसे कह उठी कि अब शुभांकर को याद करने से कोई लाभ नहीं। जब उन्हें मिलना चाहिए था तभी न मिले तो अब यूं स्वयं को बेचैन कर क्या मिलेगा ।
वह सोचती रही कि जिसकी तस्वीर तक उसकी नज़रों के सामने धुंधली है। जिसे वह ठीक से जानती भी नहीं। उसके बारे में कुछ भी सोचना बेकार है। वैसे भी अब वह किसी की पत्नी है । बच्चे हैं उसके। वक़्त भी अब काफ़ी आगे निकल चुका है। नहीं… नहीं उसे अब शुभांकर के विषय में नहीं सोचना चाहिए । फिर वो भी तो अब अपनी दुनिया में मस्त होगा । जो घट चुका सो घट चुका उसे सोच दु:खी होने का अब कोई मतलब नहीं । उसने एक गहरी साँस ली। वह अपने विचारों से बाहर निकलने की प्रक्रिया में ही थी कि एक टीस फिर कहीं से उठी पर… उसने बड़ी सहजता से उसे अपने अंदर ही दफ़न कर लिया।
माँ के पास सप्ताह भर रहने के बाद वह अपने घर लौट आयी।
जब भी कभी शुभांकर का ख़याल उसे घेरता तो वह जल्दी ही उससे निजात पा जाती। वक़्त हर घाव भर देता है। उसके साथ भी वही हुआ।
ज़िंदगी के साथ क़दम से क़दम मिलाने की कोशिश में भागती-दौड़ती वह शादी की पंद्रहवीं सालगिरह तक पहुँच चुकी थी। माँ को गुज़रे भी कई वर्ष हो चुके थे। बीते कई सालों से अमीर भाई-बहन उससे हर प्रकार की दूरी बरतने लगे। उनके इस व्यवहार से दुखी वह अक्सर अब अकेलेपन और उदासी से भरी रहने लगी थी। पति और बच्चों के सिवाय अब दुनिया में उसका कोई नहीं है… महसूस होते ही वह रो पड़ती। एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत पति नरेश भी दो पैसे के अतिरिक्त जुगाड़ की ख़ातिर ओवर टाइम करते और अधिकतर रात को देर से घर आते।
ज़िंदगी के प्रति तो वह बालपन में पिता के गुज़रते ही परिपक्व हो गई थी पर उम्र से कब मैच्योर हो गई उसे पता तक नहीं चला।
तैंतीस साल की होने को आई थी वह ।
अक्टूबर का महीना और हल्की गुलाबी ठंड का पैर पसारना…. गर्मी से निजात पाने को तरसते लोग, अक्टूबर की इस गुलाबी ठंड का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। इस मौसम में कई अरमान जवां हो जाते हैं। बहुत से नये रिश्ते बनते हैं। नये-नये ख़्वाब बुने जाते हैं। वहीं कई पुराने सपने साकार भी होते हैं ।
जीवन में इतनी जद्दोजहद के बाद भी आज वह बहुत अच्छे मूड में थी और अपने पसंद के पुराने “आल टाइम हिट्स” गानों के साथ चाय का लुत्फ़ उठा रही थी।
बच्चे ट्यूशन गए हुये थे और सास-ससुर अपने क़रीबी रिश्तेदार के सामाजिक समारोह में शिरकत करने शहर के बाहर। पति नरेश भी रात को लगभग आठ बजे तक ही आते थे, सो उसे रात का खाना जल्दी बनाने की भी चिंता नहीं थी। कुल मिलाकर कोई भी उसे डिस्टर्ब करने वाला नहीं था।
मन में भरे एकाकीपन को यदा-कदा लाड़-प्यार से मनाकर जीवन को थोड़ा-सा रसमय बनाने की इल्तजा करती हुई वह जब भी समय के पास जाने की चेष्टा करती, उसके सास-ससुर की उपस्थिति तब अक्सर उसके मार्ग में एक अवरोधक का कार्य करती। ऐसे माहौल को पाने को तरस जाना कई बार उसकी नियति बन जाती थी। जब वह अपनी पसंद का संगीत सुने…… हाँ, अक्सर उसका मूड ऐसा नहीं होता था। ये तो बस मन में कभी-कभी ही बेमौसम या मौसमी बरसात हो जाती थी ।
शाम के चार बजे जाते थे। सहसा उसे अपनी डोरबेल बजने का आभास-सा हुआ। उसने अपने कानों को बाहर की तरफ लगाया। थोड़ी देर तक कोई हलचल न होने पर उसने आभास को वहम का नाम दिया। वहम समझ वह अपने में खो जाती उससे पहले ही डोरबेल फिर बजी। उसका वहम जाता रहा। संगीत में खलल….ओहो! उसने अपने गानों का वॉल्यूम कम किया और झुंझलाहट से भरी वह दरवाज़े की ओर बढ़ गई।
मेनगेट खोलते ही, लंबे-चौड़े एक संभ्रात से व्यक्ति को सामने देख वह भौंचक रह गई। गठा शरीर, सुंदर काली आँखें, उन्नत ललाट, गोल मुख और मुख पर घनी काली मूंछें गेहूंए रंग को उजला बनाने पर आमादा थीं। नीली जींस पर नींबू रंग की शर्ट जिस पर छोटी हरी-सफ़ेद चेक उसे और अधिक आकर्षक बना रही थी। उसके इर्द-गिर्द भीनी-भीनी-सी ख़ुशबू के डेरे थे।
-“सावी !”
वह उसका जायज़ा ले ही रही थी कि उसके मुख से अपना नाम सुनकर वह चौंक गई। एक अजनबी उसका नाम लेकर उसे पुकार रहा था। ओहो, ये तो कोई साउथ इंडियन है। दिमाग सजग हुआ।
उसने झिझकते हुए उसकी आँखों में झाँकने की कोशिश की- “जी…! आप कौन…?”
उसकी मुस्कान और उसकी चुप्पी उसके सामने तैर गई।
-“जी… बताइये आप कौन …? मैंने आपको पहचाना नहीं। आप मेरा नाम कैसे जानते हैं? क्या हम कहीं मिले है…?”उसकी मुस्कुराहट और चुप्पी बुरी नहीं थी… पर, पूछना आवश्यक था। उसने कई सवाल एक साथ पूछे।
पैरों के पास रखे सूटकेस पर निगाह पहुँचते ही दिमाग में कौंधा- कोई दूर का रिश्तेदार है शायद। किन्तु.. उसके मायके का तो कोई है नहीं। तो क्या नरेश का जानकार है ? असमंजस की स्थिति उत्पन्न होने लगी। एक अजनबी को घर के अंदर भी नहीं बुला सकती थी और यदि कोई परिचित या रिश्तेदार है, तो दरवाज़े पर खड़े रखना भी ठीक नहीं।
वह विचारों में उलझी हुई थी और वह- बिना कुछ कहे उसे देख-देख मुस्काता रहा।
-“जी, बताइये कौन हैं आप …? कहीं आप गलत पते पर तो नहीं आ गए ?” किन्तु अपने सवाल पर ही उसकी ज़ुबान लड़खड़ा गई। वह उसका नाम जानता था। निश्चित ही कोई अपरिचित तो नहीं ही था।
पर, है कौन… ? बोल भी तो नहीं रहा। बस देखे जा रहा है। शक्ल से तो बड़ा शिष्ट और सज्जन लग रहा है… कोई डाकू लुटेरा तो हो नहीं सकता। मन में सोचती रही—-
-“क्या करूँ.. अंदर बुला लूँ क्या…?” दिल ने साहस का परिचय देना चाहा।
-“ना…” दिमाग ने तुरंत सावधान किया….
-“भूलना नहीं… वह घटना… शादी के चंद दिनों बाद जब ऐसे ही एक दिन तुम अकेली थीं। कैसे एक लड़के ने तुमसे झूठ कहा था कि वह तुम्हारी सासु माँ के मेके से आया है। उसे तो तुमने अंदर भी नहीं बुलाया था… कैसे झूठ-मूठ उसने तुमसे पीने को पानी मांगा था तो तुमने मानवता के नाते उसे पानी लाकर दिया था… याद है ना… कैसे तुमसे पानी का गिलास लेने की बजाय वो तुम्हारे गले के हार पर झपट्टा मारकर उसे ले भागा था। वो तो गनीमत रही कि तुमने साहस का परिचय देते हुये उसके पीछे दौड़ लगा दी थी। संकरी गली मे खड़ंजा… यदि सामने से सब्जी का ठेला न आ रहा होता और तुम्हारे चीखने पर वह सब्जी वाला उस चोर पर न झपट्टा होता तो हड़बड़ी में वह हार उस चोर के हाथ से न गिरा होता। सोचो- उस दिन तो हार लुटने से बच गया था… पर यदि आज भी ऐसा ही कुछ हुआ तो क्या करोगी।”
-“हाँ रे अच्छा याद आया… ना… ना… ना बाबा इसे तो मैं बिलकुल भी अंदर नहीं लूँगी।” अपने दिमाग को तसल्ली दी उसने।
-“मत लो… पर तुम्हें याद है ना… दूसरी वह घटना… जब तुमने अपने ममिया ससुर के अपरिचित बेटे को भरी गर्मी में भी बिना पानी पिलाये गेट से ही लौटा दिया था। इस बात पर सासु माँ ने तुम्हें कितनी फटकार लगाई थी। याद है ना तुम्हें…? आज भी ऐसा ही हो सकता है….” दिल ने टोका।
उफ! क्या करे…. उसे सब याद है… बिना उसका डर समझे उसके सभी घरवालों ने उसे कितना फटकारा था। सबने कितनी नसीहतें दे डाली थीं तब… वह अजीब ऊहापोह में थी।
-“हूँ… देखती हूँ कोई पड़ोस में है क्या… उसे बुला लाती हूँ एक से भले दो हो जाएंगे। तभी इसे अंदर बुलाऊँगी। उसने दिल और दिमाग दोनों को टोका।
हाँ… यही सही है…. उसने निर्णय लिया। आदमी भी तो अजीब है कुछ बोल ही नहीं रहा।
उसने इधर-उधर झाँका ।
सामने खड़ा व्यक्ति अब भी मुस्कुरा रहा था। उसके दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते विचारों से बेपरवाह…. उसे एकटक देखते हुये देख वह अब खीझने लगी थी।
– “एक मिनट रुकिए ! मैं किसी को पड़ोस से बुला लाऊं ।” वह बढ़ती उससे पहले ही—-
– “मैं … शुभांकर !”
बढ़ते कदम जस के तस थम गए।
– “शुभां….कर….” पहचाना-सा है ये नाम कुछ…पहचाना सा… अस्फुट स्वर… जिह्वा में खराश… या और कुछ।
उसकी मुस्कान और गहरी हो गई।
-“हाँ … मैं शुभांकर … केरल से आया हूँ।” उसकी आँखों में आँखें डालकर बोला वह।
-“केरल… शुभांकर..!”
भूली हुई आँखें उसके समुख जीवंत थीं। एक क्षण के सौंवे हिस्से से भी पहले पहचान गई वह उसके दिमाग से लोप हुई आँखों को। तप्ति देह पर बर्फ के फाहे…. आहा!
हर्ष की एक हिलोर तेजी से उठी और उसके तन-मन में बहने वाले लहू के हर कतरे को झंकृत कर गई।
हृदय पुकार उठा शुभांकर… शुभां… कर …. !
उसकी देह एक पल में इतनी हल्की हो उठी जैसे वह घास-फूस की बनी हो। कानों में सिवाय एक नाम के और कुछ नहीं। वह अपलक बस उसे देखती रही । जाने कितनी कितनी देर तक। ओह… शुभांकर… उसके पैरों में कंपन-सा होने लगा। जाने कौन सा आवेश था.. जाने कौन सा आवेग।
वह बेखुदी में उसकी मुसकुराती आँखों में झाँकने लगी। निर्लज्ज सी….
-“शुभांकर … !”
उसने मुसकाती आँखें ‘हाँ’ में झपकाईं।
आह…
यही है … यही है … वह … वही शुभांकर जो केरल से उसे कई वर्षों तक ख़त लिखता रहा था। यही है… वह शुभांकर जिसके ख़त भाई उससे छुपा-छुपा कर अपने भाई होने का फर्ज़ निभाते रहे। जैसे कि वे ख़त किसी बड़ी आँधी या तूफान का निमंत्रण-पत्र थे। जिसे भाइयों ने अपने बलशाली हाथों से रोके रखा। जिन पर उन्हें बहुत भरोसा था कि ये भुजाएँ किसी की भी गर्दन दबोचने में सक्षम हैं। तब भी, तब भी… वह बाली उम्र के उन खतों से डर जाते रहे। और चुपचाप उस तक पहुँचने से पहले ही उन्हें जलवाते रहे। सबको इस निर्देश के साथ कि सावी को कभी इस बात का पता न चले।
ये वही शुभांकर है …
जिसके खतों के बारे में माँ जाने किस भावनावश उस दिन उसे वह सब बता बैठी। अपना अपराधबोध भी शायद उन्हें कचोटता होगा।
उन्हें लगा होगा कि यदि सावी को कभी यह बात पता चली तो उसे बहुत बुरा लगेगा कि क्या माँ भी कभी उस पर विश्वास नहीं कर सकीं। सब कुछ जानते बूझते भी। आह … आज वही शुभांकर … हाँ … हाँ वही … वही शुभांकर उसके सामने है….।
वातावरण में नमी उतर आई थी कि निगाहों में, हर ओर सम्मोहन ही सम्मोहन था…
वह सम्मोहित-सी जाने कितनी देर अभी उसे और यूं ही निहारती रहती यदि शुभांकर ने खंखारकर अपना गला साफ कर उसका ध्यान भंग न किया होता।
-“अंदर आइये…” अपनी मनोस्थिति को संभालने की कोशिश करती वह उसे ड्राइंगरूम में ले आई।
कुछ भी उसके नियंत्रण में न था। न दिल, न दिमाग, न शरीर। लगभग हर चीज से टकराती-सी वह रसोई में गई और पानी लाकर शुभांकर को दिया। खड़ी रह जाती यदि शुभांकर ने उसे बैठने का इशारा न किया होता। मानों आज कठपुतली वह।
सोफ़े पर बैठी सिर झुकाये मौन रही। हृदय पर घने मेघ। स्वयं को उसकी अपराधिन तो वो उसी दिन घोषित कर चुकी थी जिस दिन माँ ने वह सब बताया था। आज तो वह सजा सुनना चाहती थी। वह जो वो भोग चुकी थी और वह भी जो बाकी थी।
शुभांकर का आना खुशगवार था। पर अंदर जो जज़्बातों के अंधड़ थे वे उसका दम घोंटे थे।
पानी पीकर शुभांकर ने गिलास वापस ट्रे में रखा। उसने कनखियों से देखा शुभांकर की स्थिति उससे भी अधिक बुरी थी। पानी पीते वक़्त शुभांकर के हाथों का कंपन उसने स्पष्ट देखा।
-“काफी बदल गई हो सावी… पर पहले से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत दिख रही हो तुम।” स्वयं को संयत जतलाने की आतुरता में शुभांकर ने मौन तोड़ा।
-“आप … आप भी तो काफी बदल गए हैं। पहले दुबले-पतले किशोर थे अब पूर्ण-पुरुष।” दक्षिण भारतीय होते हुए भी शुभांकर का इतनी अच्छी तरह से हिन्दी बोलना उसे बहुत भला लगा। वह मुस्कुरा उठी।
– “तुमने कभी मेरे ख़तों के जवाब क्यूँ नहीं दिये…?”
उसकी मुस्कान पर ग्रहण लगा। इसी एक सवाल ने तो कितनी कितनी बार मारा है उसे… जाने कितनी-कितनी बार… शुभांकर को इसका अनुमान भी नहीं। वह उसे एकटक ताकने लगी। अपनी आँखों में उतर आए कातर भाव को छुपाते हुये उसके सवाल को हवा में ही तैरते छोड़ पूछ बैठी- “आपने मुझे ख़त लिखे ही क्यूँ थे…?”
– “क्या तुम नहीं जानतीं…? इसके साथ ही शुभांकर ने अपने आपको सोफे पर ढीला छोड़ दिया। एक लंबी साँस खींच कर बाहर छोड़ते हुये- क्या सचमुच नहीं … कि मैंने तुम्हें ख़त क्यूँ लिखे…?”
इंकार में उसकी गर्दन हिलते देख, पीड़ा की एक रेखा उसकी आँखों में खिंच गई। बेचारगी में पहले इधर फिर उधर गर्दन घुमाई उसने।
– “सावी, नैनीताल में यकीनन तुमने मुझे कभी गौर से भी नहीं देखा था। पर मेरी तरफ से तुमसे दोस्ती की शुरुआत यहीं से हो चुकी थी। तुम्हारी क्षमता पर बहुत यकीन था मुझे। मैं चाहता था कि तुम कुछ बनो… इसीलिए मैं तुम्हें खत लिखता था। पर… तुम … तुमने कभी जवाब दिया ही नहीं।” भावुकता की अधिकता से शुभांकर का नीचे का ओंठ काँप उठा।
वह उसके चेहरे पर नज़र न टिका सकी। दाहिने पैर के अंगूठे से फर्श को फोड़ डालने की इच्छा थी कि किसी भावना का वेग प्रबल था। अंदर उमड़े तूफान को वश में करने की चेष्टा में सब कुछ उथल-पुथल था भीतर।
-“बड़ी मायूसी होती थी और होती रही पर मैं निराश नहीं था सावी, बिल्कुल निराश नहीं था। मैं निश्चय कर चुका था कि अपने पैरों पर खड़े होते ही तुमसे मिलने, तुम्हें अपने दिल की बात कहने, तुम्हारे पास आऊंगा ज़रूर। पर… देखो न तुम … सावी, तुम तक पहुँचते-पहुँचते मुझे कितनी देर हो चुकी है।”
उसने अपना चेहरा तुरंत दूसरी ओर घुमा लिया किन्तु तब तक वह उसकी भर्राई आवाज़ से उसके अंदर के समंदर में उठी लहरों की ऊँचाई को माप चुकी थी। जो उधर से उठी अवश्य थी पर गिरी…उसी के मर्मस्थल पर।
वह मौन रही। दोनों भीतर एक-एक सुनामी…अबोला पसर गया कक्ष में। वातावरण बोझिल-सा हो उठा।
भीतर ही घुटी-घुटी पीड़ा की नमकीन झील से कोई भाप-सी उठने लगी। शुभांकर उसे लगातार संभालने की चेष्टा करते कई बार अनायास मुसकाया… आंखो के किनारे साफ करते भी।
इसके उलट वह चोरी-चोरी शुभांकर के इस अस्वाभाविक व्यवहार को देख पल-प्रति-पल दुख में डूबे जा रही थी। उसका दर्द उसकी बर्दाश्त से बाहर था। उसका दर्द… जो अभी कुछ क्षण पहले तक उसके लिये अजनबी था।
-“ बताओ! सावी… तुमने कभी मेरे किसी भी ख़त का जवाब क्यूँ नहीं दिया ?” वह मानों बाल सुलभ ज़िद पर उतर आया था।
इस सवाल को कहाँ तक टाल सकती थी वह। जवाबदेह वह और जवाब देना अत्यंत ज़रूरी। अब तक समझ चुकी थी। कोई चारा न था। होता भी तो वह अपने नैतिक कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकती थी। मानवता भी कोई चीज है… रो-सी उठी वह शुभांकर को सारी हक़ीक़त बताती हुई।
उसकी निर्दोषिता साबित हुई। बिन किये अपराध से उसके मुक्त होते ही- “ओहह… तो मैं वक़्त के हाथों का मारा था…” अचिन्हा-सा कुछ उभर आया शुभांकर के नेत्रों में। किंचित एक वक्र मुस्कान अधर पर। किसके वास्ते नामालूम….
“एक बात पूछूं…?” अनधिकार से पूर्ण किन्तु आग्रह में हल्के अधिकार का भाव….
“हाँ…” बेझिझक कह गई।
-“यदि मेरे पत्र तुम्हें मिलते तो क्या तुम जवाब देतीं…?” कुछ अनावरण होने को उत्सुक। किसी ढके का उघड़ना… शुभांकर के होंठों पर एक प्यास ठहर गई।
-“पता नहीं….!” अपना बचाव करते हुये वह धीमे से बोली।
दर्द के समंदर में डूबते-उतरते उसे इतना भी होश न था कि दूर से आये शुभांकर को चाय या कॉफी को भी पूछ ले… यह स्थिति अभी और न जाने कितनी देर रहती यदि उसने मेज़ के कोने पर रखा अपनी चाय का प्याला न देखा होता।
-“आप क्या लोगे चाय या कॉफी?” वैचारिक क्रम में बाधा उत्पन्न हुई।
शुभांकर ने ‘न’ में गर्दन हिलाई । गोकि इस समय उसे कोई बाधा नहीं चाहिए थी। उसका ध्येय कुछ और था।
-“नहीं, सावी तुम्हें इसका उत्तर देना ही होगा। मैं इतनी दूर से यही जानने आया हूँ। ये मेरे लिए जानना कितना जरूरी है, इसका अंदाजा तुम मेरे आने से लगा सकती हो। बताओ, यदि मेरे ख़त तुम्हें मिलते तो, क्या तुम उनका जवाब देतीं…?” उसकी ज़िद स्वाभाविक थी।
-“हाँ, शुभांकर! मैं अवश्य देती। जिस तरह से ख़तों का मज़मून होता था। जैसे कि मेरी माँ ने मुझे बताया, उस हिसाब से तो मैं ज़रूर जवाब देती। इतना अच्छा लड़का जो मेरा इतना बड़ा शुभचिंतक था। जिसे मेरी ख़ुशी का इतना ख़याल था। जो मुझे इतना एप्रिशिएट करता था। उसके ख़तों का मैं जवाब क्यूँ न देती भला…या उससे दोस्ती, मैं क्यूँ न करती। बिल्कुल, आज हम अच्छे दोस्त होते शुभांकर।” उत्तर देना और उत्तर पा जाना दोनों अलग बातें हैं। जितनी कसक भरी संतुष्टि उसे मिली। क्या शुभांकर को भी मिली होगी…?
संदेह का निराकरण किसी और ही रूप में हुआ। उसने देखा- शुभांकर की आँखों में नूर भरे मोती हैं। वे मोती जिनकी संगत से उसके लब तो काँप रहे थे पर चेहरा उसका रोशन था।
राहत की सांस उसके नथुने से होती दूसरे तक पहुंची। क्या पाया इसने… क्या…? वह खोई रही… खोने पाने के समीकरण उलझते रहे।
उधर शुभांकर बेख़याली में अपलक उसे देखे जाता रहा।
शुभांकर की आँखों में उसे वही गुनगुनाहट महकती दिखाई दी जो थोड़ी देर पहले अपने पसंदीदा गानों को सुनते हुए वह अनुभूत रही थी,… “देखो न ! गुनगुनाहट भी महकती है कभी-कभी।” मन की बात मन से कहती हुई शरमायी।
दोनों एक दूसरे को देखते मुसकाते रहे…
‘अजनबी… तुम जाने पहचाने से लगते हो…’ गीत के स्वर जैसे ही उन दोनों के कानों में घुले दोनों ही खुल कर मुस्कुरा उठे। माहौल संगीतमय हो गया ।
उसे म्यूजिक सिस्टम बंद करना ध्यान ही नहीं रहा था। हाँ, उसने ड्रोइंग रूम में आते ही उसकी आवाज़ ज़रूर हल्की कर दी थी। इतनी मद्दिम कि जिससे दोनों की बातों में कोई विघ्न न पड़े।
नाक और आँख में पानी होने के बावजूद भी हल्के होते मन से कैसे मुस्कुराया जाता है आज समझी वह।
मन की जिज्ञासा ने लंबी होती चुप्पी को शब्द दिये- “आज इतने बरसों बाद तुम… अचानक… मेरा मतलब कि मेरा पता तुम्हें कैसे चला… ? मेरी ससुराल … है” वाक्य के अंत में शब्द लड़खड़ा-से गए उसके।
ये कि संभलने की कोशिश में जिह्वा पर अंकुश न रहा हो-“ आई मीन… समय के इतने लंबे अंतराल के बाद… क्या तुम जरा जल्दी नहीं आ सकते थे…?” उसने माहौल खुशनुमा बनाने का एक छोटा-सा सायास प्रयास किया।
-“ मैं, अब दुबई में नौकरी करता हूँ सावी। आना तो तभी चाहता था लेकिन पिताजी का अचानक देहांत… उनके बाद माँ का सारी दुनिया से लगाव समाप्त हो जाना। उनकी बिगड़ी मानसिक और शारीरिक स्थिति… उन्हीं की देखभाल में रहता सारा दिन बिना तुम्हें भूले…. अकेला बेटा होने के कारण सारी ज़िम्मेदारी भी मेरी ही थी। “किन्तु … उन्हें बचा न सका मैं ।”बीते का दर्द उदासी बन उभर आया शुभांकर के चेहरे पर।
“ओह!” अफसोस जताने को भले निकले कंठ से ये शब्द… पर अनजाने ही ये उनका कलेजा चीरते हैं जो अपनों को खो चुकने के बाद उनके वियोग में तड़पते हैं।
“.. माँ के गुजरने के बाद, स्थिति सामान्य होने में काफ़ी समय लगा सावी, जब हालात बेहतर हुए तो, तो… तुमसे मिलने का प्लान बनाया क्योंकि मेरा भविष्य….”
-“मुझसे…” आश्चर्य से भर वह बीच में ही उसे टोक बैठी- “लेकिन, मुझसे मिलने तो तुम आए ही नहीं।”
-“मैं आया था, सावी … ! मैं आया था… दिल्ली के तुम्हारे उस पते पर जिस पर मैंने ख़त भेजे थे….”
-“हें…” हैरत से मुख खुला रहा।
-“हाँ-
-“ना…”
-“हाँ… सावी हाँ….”
-“तुम्हारे घर का पता पूछने पर वहीं किसी अम्मा ने मुझे बताया कि ‘वे लोग तो आज सभी गुड़गांव गए हैं। सावी की ससुराल… उसी के लड़की हुई है। तुम्हारे बाबत पूछने पर उन्होंने बताया- कोई डेढ़ दो साल पहले शादी हुई उसकी।” शुभांकर के पराजित शब्द भर्राए गले से बाहर निकले….
वह बुत… समय कितना हृदयहीन…. निष्ठुर !
उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। करुणा छलक-छलक उठी। उसने अपनी आँखें नीचे झुका लीं जैसे वह …वह दोषिक हो और उसके इस दोष की कोई माफी नहीं। बिना कुछ समझे भी…..
शुभांकर ने अपनी जेब से रुमाल निकाला और अपनी आँखें साफ करने लगा। मोटे-मोटे आँसू उसकी काली पलकों में बुरी तरह उलझ गए थे याकि झड़ी लगी थी। वह नम नैनों को दूसरी ओर घुमाना चाहती थी किन्तु शुभांकर की सिसकी ने उसका हृदय चीर कर रख दिया… पागल क्यों रो रहा है इतना… क्यों? क्या लगती हूँ मैं इसकी… ये भावुक मन भी न किसी काम के नहीं… हर जगह खारी झील बन जाते हैं कंबखत… पर पीड़क कहीं के।
उसकी आँखों के आँसू साफ़-साफ़ दिख रहे थे। शुभांकर को भी जैसे उन्हें छुपाने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं हुई अब….
प्रेम और कारुण्य दोनों मिलकर क्या बनते हैं… नहीं पता वह तो पगला-सी गई लगती थी। उसे शुभांकर का दुख अंदर से छील रहा था। और, जो उसके अपने अंदर घुमड़ रहा था, वह क्या था… नहीं जानती थी वह। उसके होंठ पपड़ा उठे। झुकी पलकों तले अविरल धारा बहती रही….
-“पूछो सावी…! पूछो…. मेरे दिल पर क्या गुज़री… पूछो ! किसी का एक झटके में सबकुछ ख़त्म हो जाये तो कैसा लगता है… मुझसे पूछो ! तुम मेरे लिए सबकुछ थीं। मुझे ये बिल्कुल एहसास नहीं था कि वक़्त मेरे वास्ते इतना आगे निकल चुका होगा कि तुम मुझसे बिल्कुल परायी ही हो चुकी होगी।”
-“मैंने बस इतना सोचा कि अभी तो सावी अपना करियर बनाने में ही लगी होगी। पर… यहा तो सबकुछ ही …” शुभांकर का गला बुरी तरह रुँध चुका था उसने अपने दाहिने हाथ को ऐसे पलटा कि उसका दुख उसे बुरी तरह तड़पा गया। ओफ! क्या करूँ…. कोई किसी के दुख में इतना रोता है क्या….? वह बिना कुछ सोचे सिसक उठी।
-“उस दिन, उस रात सावी, मैं 24-25 घंटे तक दिल्ली स्टेशन पर ही ठहरा रहा। अपने आपको संभालने की भरपूर कोशिश के बावजूद मेरा दिमाग मेरा साथ नहीं दे रहा था। मैं पता नहीं कितने घंटों से भूखा था। मुझे कुछ याद नहीं रहा था कि जीवन जीने के लिए खाना भी ज़रूरी है। क्या करूँ, क्या नहीं कुछ समझ न पा रहा था। जीवन बेमायने हो चुका था। जाने कितने-कितने घंटों तक मैं लगातार रोता रहा था। मुझे कोई संभालने वाला नहीं था। कोई नहीं सावी !कोई नहीं…” पुरुषत्व से भरे उसके नैन स्त्रीधन भरे थे।
-“मैं बहुत दूर चले जाना चाहता था। बहुत दूर… सबसे… तुमसे, अपने आप से , इस दुनिया से….” अंतिम शब्द अक्सर पीड़ादायक होते हैं। अक्सर…. शुभांकर ने आख़िरी शब्द भले अपने मुख ही में कहे लेकिन वे उसके कानों से टकरा चुके थे।
– “हा!” एक हिचकी कहाँ से उठी नहीं पता बस इतना कि शुभांकर और वह, दोनों रो रहे थे ।
उसका पूरा चेहरा आंसुओं से भीग गया था। कब उसके साथ उसके दिल के तार जुड़े और कब आँसुओ का एक ज्वालामुखी उसकी आँखों से भी फूट पड़ा उसे नहीं मालूम ।
उसने अपनी साड़ी के पल्लू से अपने आँसू पोछे और बोली- “शुभांकर तुम मुझसे मिलने आए ही क्यूँ थे? क्या ज़रूरत थी तुम्हें इतना सब सहने की। बताओ… जब एक लड़की ने तुम्हें तुम्हारे खतों के जवाब देना तक भी मुनासिब न समझा तो फिर उससे मिलने का तुमने सपना बुन कैसे लिया? मैंने तो कभी तुमसे ढंग से बात तक भी नहीं की थी तो, फिर तुमने कैसे सोचा कि तुमसे मिलने के बाद मैं तुम्हारी दोस्त बनूँगी ही बनूँगी। ऊपर से ये भी कि मुझ पर इतना विश्वास किया तुमने कि मुझे अपनी दोस्त समझ ही बैठे।”
-“मुझे तुमसे प्रेम हो गया सावी… पता नहीं कब और कैसे तुम मेरे जीवन में इतना शामिल हो गयी कि कभी किसी लड़की की तरफ नज़र उठा कर भी न देख सका। और न ही कोई लड़की मुझे इस क़ाबिल लगी जो तुम्हारे मुकाबिले थोड़ी भी ठहर सकती हो। या ये भी कहा जा सकता है कि मैंने तुम्हारे स्थान पर किसी को रखकर कभी सोचा ही नहीं।”
उफ़्फ़…! क्या कह गया शुभांकर… क्या…? कितनी आसानी से कह दिया सब आज शुभांकर ने कि वह उससे प्यार करता है , पर… क्या यह सब इतना आसान था। आज… या पहले भी …।
क्या वह भी आज यही सब सुनना नहीं चाहती थी…क्या वह भी…?
उसका रोम-रोम पिघल उठा। होठ थर्रा उठे… भावावेश में बार-बार अपनी काली पलकों को गिराती उठाती वह दर्द का सागर बन गई।
उसे लगा शुभांकर उसका बिछड़ा प्रेमी है। जिससे वह पहले बेइंतहा मोहब्बत करती थी। आज … आज मुद्दतों बाद उसे अपने इतने नजदीक पा उससे लिपट जाना चाहतीहै। उसकी आँखों पर अपने नरम ओंठों को रख उसकी आँखों से वह सारा खारापन पल भर में पी लेना चाहती है जो उसकी जुदाई में उसे बीस सालों तक सालता रहा।
वह दर्द जो उसे तड़पाता रहा, झुलसाता रहा। वह अनकही वेदना, वह सुलगती आग जो उसे अंदर ही अंदर जला रही थी उससे उसे वह पल भर में मुक्त कर देना चाहती थी। वह तड़प उठी।
उस तड़प को जज़्ब करने की कोशिश में उसने अपने बाएँ हाथ की उँगलियों को दायें हाथ की उँगलियों में फँसाकर मरोड़ दिया।
-“वह उससे प्रेम करता आया है, करता है। उसका मन उसके वश में न रहा । प्रेम… प्रेम… जैसे इस शब्द को कहीं पढ़ा है… पढ़ा है कहीं, पर जान न सकी। वही प्रेम आज यहाँ… शुभांकर ने कहा… प्रेम…आह!
-“काश ! तुम्हारे दिल की बात मुझे पहले पता होती। या … या… फिर खुदा का कोई फरिश्ता ही उतर आता आसमान से हम दोनों को मिलाने के लिए। मैं तुम्हारी अपराधी हूँ शुभांकर …शुभांकर … मेरे कारण तुम्हें इतनी मानसिक पीड़ा झेलनी पड़ी। इतना सब सहना पड़ा।” वह झरना बन गई।
-“नहीं … नहीं … सावी तुम्हारे कारण नहीं, अपनी बदकिस्मती के कारण। देखो न… मेरा एक भी खत तुम तक नहीं पहुंचा। जानती हो कभी-कभी तो मैं हफ्ते में दो-दो बार पोस्ट करता था। अपने धैर्य का भी धीरज बँधाये रखता मैं कि किसी दिन तो तुम पिघलोगी…”
काश! कोई आरी होती दुख को काटने की।
-“मुझ पर किसी को दया नहीं आयी… न तुम्हारे भाई को, न किस्मत को, न ईश्वर को। जो मुझे मिलना ही नहीं था उसके लिए मेरे दिल में उसने मोहब्बत जगाई ही क्यूँ। कई बार पूछा मैंने ये सवाल … सावी, कई बार पूछा उस ईश्वर से … अकेले में भी और भीड़ में भी पर… नहीं पा सका कोई जवाब, मिली तो बस एक तड़प और कुछ नहीं।’ शुभांकर की आवाज़ फिर से भर्रा गई
उसे लगा वह सचमुच शुभांकर से प्रेम करने लगी है। अभी-अभी … या … पहले से ही। पता नहीं पर जब से शुभांकर के ख़तों के बारे में उसे माँ से पता चला एक नरम कोना तो बन ही गया था उसके दिल में शुभांकर के लिए।
कई बार उसके विचारों के घेरे शुभांकर के ही इर्द-गिर्द रहते। स्मृतियों में उसे कई बार झटकने के बाद भी। एक कसक सब जानने के बाद हमेशा सालती रही कि काश कभी ज़िंदगी में शुभांकर से मुलाक़ात हो तो साबित कर सके अपनी बेगुनाही कि उसके ख़तों के जवाब किस कारण न दे पाई थी वह।
एकाएक शुभांकर पर उसे बहुत प्यार आया। बिना उसे कुछ बताए चुपचाप वह उसके सलोने चेहरे को प्रेम भरी नज़रों से चूम लेना ही चाहती थी कि तभी उसकी नज़र सामने दीवार घड़ी पर पड़ी, ‘उफ़्फ़! यह क्या …? साढ़े छह हुए जाते हैं, “शाम घिर आई है।” उसके मुख से निकला।
वास्तविक स्थिति का भान होते ही वह संभल गई।
-“जब सब तुम्हें पता चल ही गया था… तब ऐसे में तुम… मेरा मतलब तुम्हारा आना…क्यों?” किंचित तरल भाव… हावी रहा।
-“ यहाँ से पहले नैनीताल गया.. वहीं से तुम्हारा पता लिया…”
“… नैनीताल…. मेरा पता लेकिन क्यों…?
-“इस बार भी मेरा स्वार्थ….”
-“एक बार तुमसे मिलकर सावी, मैं अपनी हालत तुम्हें दिखाना चाहता था। मैं चाहता था कि – मैंने तुम्हारे प्रेम में क्या खोया और क्या पाया, तुम ख़ुद देख सको। तुमसे मिलकर… तुम्हारे मिलने के बाद मैं क्यूँ किसी और का नहीं हो सका… तुमसे पूछना चाहता था। मैंने आज तक शादी नहीं की, तुम्हारे जैसी लड़की मैं कहाँ से लाऊं…वह जगह पूछना चाहता था…”
-“मैं जानना चाहता था जिसे मैं इतना प्रेम करता हूँ वह इतनी बेरहम कैसे है …? अपने खतों के कसूर जानना चाहता था…जिन्हें कभी इस योग्य भी नहीं समझा गया कि उनके जवाब दिये जा सकें… मैं जानना चाहता था कहीं मेरा प्रेम एकतरफा तो नहीं… कहीं ये कोई पागलपन तो नहीं जिसमें मैं स्वयं को स्वाहा कर बैठा था। मैं अपने आपको मूर्ख साबित होने की दशा से मुक्त करना चाहता था सावी कि एक बार तुमसे मिल पूछूं यदि हालात हमारे अनुकूल होते तो क्या तुम मेरा प्रेम कुबूलती क्या तुम मुझे स्वीकार करती । तुम्हारा जवाब ही मुझे इस स्थिति से मुक्त कर सकता था सावी और कर सकता है।”कहने को कहता रहा वो पर लगातार उसके लब भावों के आवेश में काँपते रहे।
-“मौन न रहो, मेरे सवालों के जवाब दो सावी, अब मुझसे न सहा जाता। यहाँ आकर यदि मैंने कोई गलती की तो मुझे माफ़ करना।” रुँधे गले के साथ शुभांकर ने उसकी ओर हाथ जोड़े…
-“माफ़ी…!!!”
वह बिलख पड़ी। पूछ तो बैठी थी वह इस सवाल को पर… इसमें छुपे ज्वालामुखी को वह न पहचानती थी। उसके संग वह भी तड़प उठी-“शुभ… शुभांकर, यदि मुझे सब पहले पता होता तो मैं तुम्हें कभी ऐसे न भटकने देती, कभी यहाँ कभी वहाँ । ओह… शुभांकर मैं तुम्हारी गुनहगार हूँ । मैं तुम्हारी और तुम्हारे प्रेम की इज्ज़त करती हूँ और प्यार भी।” हिच्च…
-“तुमने यहाँ आकर कोई गलती नहीं की। यूं हाथ जोड़ मुझे शर्मिंदा न करो। मैं भी बहुत कुछ जानना चाहती थी। आज मुझे मेरे सब सवालों के जवाब मिल गए… जब सवाल ही कष्टदायी हों तो जवाब सुखकारी कैसे हो सकते हैं जान गई आज”
शुभांकर के मुंह से जैसे एक कराह-सी निकली –“सावी…!”
उसकी आवाज़ सुन वह जैसे सोते से जागी। अपने आंसुओं को पोंछती वह हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। कुछ अस्फुट-सा स्वर- “ओह! बच्चे… बच्चे कहाँ रह गए?”
वह घबरा कर शुभांकर से बोली- “मेरे बच्चे… बच्चे अभी आते होंगे शुभांकर…और मेरे पति भी!
उसकी आवाज़ का कंपन शुभांकर को अंदर तक छील गया। वह तड़प उठा।
“शुभांकर… सुनो, अभी सब आते होंगे, उनसे क्या कहूँगी कि “तुम कौन हो ?” शुभांकर, मेरी ज़िंदगी तबाह हो सकती है। नरेश अब दूर-पास के सभी परिचित, सभी रिश्तेदारों को पहचानते हैं। तुम्हारा क्या परिचय दूँगी उन्हें … बोलो…” उसकी घबराहट उस पर हावी होती दिख रही थी शुभांकर को। बेबसी उतर आई शुभांकर की आँखों में ।
चिंता की लकीरें घिर आईं उसके माथे पर। शाम कब गहराई पता भी न चला। उफ़्फ़! क्या करे। उसने तो यह सब सोचा ही नहीं। वह बेचैन हो उठी। इतनी गुलाबी ठंड में भी उसके माथे पर पसीने की बूंदे साफ दिखने लगीं। वह बेख्याली में गेट की ओर दौड़ पड़ी। उसने गेट से बाहर झाँका दूर-दूर तक कोई न था। स्ट्रीट लाइटस जल्दी ही जलने वाली थी।
बच्चे जाने क्यूँ अभी तक न आए थे। उसका मन घबरा उठा। वह झपट कर जल्दी से ड्राइंगरूम में पहुंची तो उसने देखा शुभांकर तब तक अपना समान और ख़ुद को संभालकर खड़ा हो चुका है।
– “ठीक है, सावी… अब मैं चलता हूँ।”उसे जाने के लिए तैयार देख उसने राहत की एक सांस ली।
शुभांकर ने अपना पहला कदम घर से बाहर की ओर बढ़ाने से पहले उसकी ओर देखा – “तुम ख़ुश तो हो न सावी…?”
उसने उससे नज़रें चुराते हुए “हाँ” में गर्दन हिलाई।
हाँ, में हिली उसकी गर्दन देख शुभांकर के चेहरे पर एक अनोखी चमक उभर आई- “चलो, तसल्ली हुई यह जानकर कि- तुम ख़ुश हो।”
उसके हृदय में उसके इस कथन से जो दुख और वेदना की हिलोर उठी वह उसे पूरी की पूरी को भिगो गई। उसका दिल चाहा वह शुभांकर से लिपट कर ख़ूब रोये कि- “औरत को जिस भी खूँटे से बांध दिया जाता है वह बस वहीं की होकर रह जाती है। चाहे बेशक उसके मौजूदा वैवाहिक जीवन में कितने ही मानसिक, शारीरिक या आर्थिक कष्ट क्यूँ न हों, उसे अपने लिए उससे बेहतर दुनिया तलाशने का अधिकार नहीं। समाज ने उसके लिए भी यही ख़ुशी चुनी है। यदि यह ख़ुशी है तो वह खुश है ।
वह सब ज़ब्त कर गई- “जल्दी करो शुभांकर! नरेश का पता नहीं कब आ जाएँ, बच्चे भी अभी तक ट्यूशन से नहीं आए हैं। उन्हें भी देखूँ कहाँ रह गए हैं।”
-“हूँ…” फ़ीकी-सी एक मुस्कान शुभांकर के होठों पर फैल गई।
शुभांकर ने अपनी जेब से एक कार्ड निकाला और उसकी ओर बढ़ा दिया- “सावी यह मेरा कार्ड है। तुम मुझे याद करो कभी तो, मुझे अच्छा लगेगा यह जानकर कि तुम्हारे लिये लिया मेरा जीवन आज सफल हो गया। अब जब तुम मुझे याद करोगी तभी मैं आऊँगा यहाँ, तुम्हारी स्थिति का आभास है मुझे।” वह झेंपती रही।
गेट से बाहर निकलने से पहले शुभांकर ने भरपूर एक नज़र सावी पर डाली जैसे उसे जी भर आज वह देख लेना चाहता हो। सावी उसकी मनोस्थिति भली-भांति समझ रही थी। पर उसे अपनी अकल्पित स्थिति का भी बोध था।
पर…जाने क्यों, उसको छोडने वह दूर तक आयी। जैसे उसी के साथ जाना चाहती हो। शुभांकर को जाते उसने पीछे से दूर तक नैनों मे जलभर, जी भरकर देखा। पता नहीं कितना साफ़ देख पायी वह।
कोई भगवान के द्वार पे मुराद मांगने आए और झोली खाली ले जाए ऐसा ही कुछ हाल था शुभांकर का। उसका मन गहरे तक फिर भीगने लगा उसे देखकर।
कैसे हालात थे उसके, कैसी स्थिति में थी कि वह उसे रोक भी नहीं सकती थी। अपनी बेबसी पर उसे बहुत रोना आया। काश ! वह वक़्त को रोक सकती । वह उसे जाते हुए दूर तक देखती रही।
एक हिचकी बंधी … हिच्च !
शुभांकर चला गया … दूर… दूर… बहुत दूर….!
उसके नज़रों से ओझल हो जाने के बाद भी न जाने कितनी देर तक खड़ी रही वह। तभी एक फड़फड़ाहट-सी उसे अपने हाथों में महसूस हुई। उसके हाथों में शुभांकर का कार्ड फड़फड़ा रहा था। जो आँसू पोंछते-पोंछते उसकी अंगुलियों में जा अटका था।
अपनी आँखें पोंछ उसने कार्ड सीधा किया उसपर सुनहरे अक्षरों में लिखा था –
“ SHUBHANKAR B.SUBRMANYAM.
SENIOR EXECUTIVE ENGINEER
सबसे नीचे उसका दुबई का पता भी लिखा था और कोई चार-पाँच मोबाइल नंबर भी थे। पानी के नीचे थे तैरते शब्द… और उसकी आँखों में पानी। कितना साफ़ पढ़ पाई वह नहीं जानती थी।
कार्ड पर हाथ फिरा वह फफक पड़ी। आँखें सुलगने लगीं तो उसने धीरे से अपने आँसू पोछे। उसने हौले से कार्ड पर फिर हाथ फेरा और फिर तड़प उठी। न जाने कितनी देर तक वह नज़रों से चूम-चूम उस कार्ड पर हाथ फिरा-फिरा तड़पती रही । वह पगली उसे प्यार से सहला रही थी जैसे वह उसकी ज़िंदगी की सबसे अनमोल दौलत हो।
तड़प तड़प और बस तड़फड़ाहट …
थोड़ी देर उसी अवस्था में और रहती यदि उसे एक परिचित की आवाज़ ने न चौंका दिया होता। वह परिचित उसे दूर से हेलो कहती हुई जा रही थी। उसने भी उसके उत्तर में हल्के से हाथ हिला दिया और अपने घर की ओर मुड़ ली।
आज उसके पैर बहुत भारी थे। लौटकर आना दूभर-सा हुआ जा रहा था। लग रहा था जैसे कि वह किसी ओर दिशा में जा रही थी और उसके प्राण किसी दूसरी दिशा में…
लौटते, उसकी नज़र उस गहरे चौड़े नाले में उलझ गई। जो उसके घर से थोड़ी दूरी पर बहता था। नाला तो नाम भर को था। था नदी समान। तेजी से बहता हुआ।
कदम नाले की ओर बढ़ गए… कई मिनट घूरती रही उसे। न जाने किस सोच में थी। उसी सोच के अंतर्गत कठोरता का एक भाव उसके चेहरे पर दिखा और उसने शुभांकर का कार्ड नाले के बहते पानी में उछाल दिया। अब उसे अपने बच्चों के विषय में भी सोचने का होश न था… संभवतः।
थरथराते होंठ कंपकपाने लगे… “ शुभांकर ! तुमसे मिल मैं अब इतनी कमज़ोर हो चुकी हूँ कि तुम्हारी मजबूत आर्थिक स्थिति और प्रेम, मेरी मजबूर (गरीब) स्थिति को कभी भी निगल सकते हैं, मेरा वैवाहिक जीवन तुम्हारी मोहब्बत की भेंट कभी भी चढ़ सकता है। किसी कमज़ोर पल में यदि मैं तुम्हें पुकार बैठी तो, मेरे बच्चों का क्या होगा? नहीं… शुभांकर नहीं … इस जन्म में तो नहीं। तुम मेरी ज़िदगी का हिस्सा नहीं हो और न ही हो सकते हो। तुम जाओ शुभांकर … तुम जाओ !”
हम एक दूसरे के लिए नहीं बने। यही हमारी नियति है और यही सच्चाई। तुम्हारी मोहब्बत के लिए मैं कई ज़िंदगियाँ बर्बाद नहीं कर सकती… नहीं कर सकती। मुझे माफ कर दो… प्लीज ! कुछ ख़तों के पते इतने धुंधले होते हैं कि पहचान में नहीं आते इसी कारण वह कभी भी अपने पते पर नहीं पहुँच पाते… मुझे माफ कर दो शुभ… कर ! माफ़ कर दो …!!! एक हिचकी बंधी हिच्च… और सारे वातावरण में दूर तक उदासी बिखर गई।
बिदाई की रस्म पूरी हुई। कार्ड दिखने बंद हो गए।
वह घर की ओर मुड़ गई। घर के दरवाजे पर ही बच्चों और टीवी के शोर से बच्चों की अंदर सकुशल वापसी की स्थिति का आभास हो गया था उसे । उनकी ओर से वह निश्चिंत-सी हो गई । उसे घर के दरवाजे पर बाइक भी नहीं दिख रही थी । इसका मतलब नरेश भी अभी तक नहीं आए थे।
(पूनम मनु 9012339148)