
Let me say one thing
आकांक्षा पारे पिछले एक दशक से पत्रकरिता में सक्रिय हैं। वो आउट लुक पत्रिका में फीचर संपादक हैं। उनकी कहानी का विषय एकदम से अलग है। बिलकुल जामुन के स्वाद सी। इनकी कहानियां पाठक के मन में असर छोड़ जाती है। ये मानती हैं कि हर कहानी को जस का तस कहना जरूरी नहीं है। कुछ कहानियों का रूप बदल कर कहा जा तो ही वो जिन्दगी कहानी लगती है। एक बात कहूं यहां उनकी कहानी दी जा रही है।
एक बात कहूं
‘जब पत्ते झरते हैं, वसंत आता है
जब वसंत आता है, प्रेम के फूल आते हैं
प्रेम के फूल हालांकि वसंत के मोहताज नहीं होते
लेकिन
प्रेम के लिए वसंत जैसे ही किसी मौसम का होना जरूरी होता है।’
उसने अपनी आखरी कविता पढ़ी और बैठ गई। सभी नजरें उसका पीछा करती रहीं जब तक वह अपनी कुर्सी तक पहुंच नहीं गई। मुट्ठी भर हड्डियों वाली उस लड़की ने आज वाकई मंच लूट लिया था। उसने पांच कविताएं पढ़ी थी छोटी-छोटी और हर कविता पहली से बेहतर। आज वह पहली ही बार दिखाई दी थी। मैं अकसर साहित्यिक कार्यक्रमों में जाता रहता हूं। कविताओं के कार्यक्रम में तो खास कर। पर पहले मैंने उसे कभी नहीं देखा था। उसकी कविता का जादू था या उसकी दुबली देह पर लिपटी जामुनी सूती साड़ी का कि उसके बाद बहुत से लोग आए और कविताएं पढ़ते रहे पर मेरा मन किसी कविता में फिर नहीं बंध सका। मुझे पहली बार कार्यक्रम में जल्दी आने पर अच्छा लगा। यदि देर से आता तो इस नई लड़की को सुन ही नहीं पाता। वरिष्ठों को तो मैं कई बार सुन चुका था। पर आज खासतौर पर जल्दी आया ही इसलिए था कि नए लोगों को सुनूंगा। साहित्यिक कार्यक्रमों में आकर इतना मैं जानने लगा था कि पहले नए लोग अपनी रचनाएं पढ़ते हैं उसके बाद वरिष्ठों का क्रम आता है। मेरा मन उस लड़की की कविताओं में इस कदर डूब चुका था कि मुझे बाकी की रचनाओं से लगभग ऊब होने लगी थी। कोई और दिन होता तो मैं कब का उठ कर चल दिया होता। मगर पता नहीं क्यों मैं उससे बात करना चाहता था और उसके लिए जरूरी था कि मैं वहां टिका रहूं। जब बहुत देर हो गई तो मेरा धैर्य चुक गया और मैं उठ कर बाहर चला आया। कार्यक्रम था कि खत्म ही नहीं हो रहा था। कुछ देर मैं वहां ठहरा रहा कि मेरे जैसा कोई ऊब का मारा बाहर निकलेगा तो मैं उस लड़की का नाम पूछ लूंगा। करीब दो दर्जन कविता पढ़ने वालों के बीच सिर्फ एक लड़की का नाम पूछना मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था इसलिए मैंने सोचा था कि चालाकी से नए लोगों के नाम लिख लूंगा। इस कार्यक्रम में वैसे भी नए लोग ज्यादा था। पुरानों को तो मैं जानता था। लेकिन जब देर तक कोई नहीं आया तो मैं मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन की ओर चल दिया।
अंदर की अपेक्षा बाहर हल्की सी उमस थी। लगता था बस थोड़ी देर पहले ही बारिश हुई है। पत्तों पर ठहरी हुई बूंदे बस गिरने को थीं, पर गिर नहीं रही थीं। ठीक वैसे ही जैसे मैं कार्यक्रम के खत्म होने का इंतजार कर रहा था। पानी के छोटे-छोटे चहबच्चों में दो चिड़िया अठखेली कर रही थीं। मैं देर तक उन्हें देखता रहा। घड़ी ने साढ़े सात बजाए तो मैंने सोचा, छोड़ो लड़की को घर पहुंचते हुए नौ बज जाएंगे और कल भी खिचड़ी खाई थी इसलिए आज तो कुछ अच्छा खाना बनाना जरूरी है। लड़की का नाम किसी से पूछ लूंगा। और यदि कविता की दुनिया में उतरी है तो कहीं न कहीं फिर टकराएगी।
मंडी हाउस के साफ-सुथरे माहौल से निकल कर जाने का वैसे ही मन नहीं करता और उस पर से आज ये जामुनी साड़ी भी मुझे रोक रही थी। पर क्या करता समय से घर पहुंचना जरूरी है। वरना मेरा रूममेट राजेश समझेगा कि मैं खाना बनाने के चक्कर में देर से आता हूं। मैं पैदल चलते हुए मेट्रो स्टेशन पर आया। अंदर भीड़ का सैलाब था। पता चला लाइन में कोई खराबी है, पिछले पंद्रह मिनट से मेट्रो नहीं आई है। दफ्तर की छुट्टी का वक्त ऊपर में मेट्रो पंद्रह मिनट न आए तो स्टेशन का हुलिया ही बिगड़ जाता है। मैं फिर से बाहर आ गया ताकि बस पकड़ सकूं। बस स्टैंड पर मौजूदा भीड़ से साफ पता चल रहा था कि मेट्रो के मारे बहुत से लोग यहां खड़े हैं। सामने एक बूढ़ी अम्मा बैठी जामुन बेच रही थी। मुझे फिर जामुनी साड़ी की शिद्दत से याद आ गई। मैंने अभी पहला जामुन खाया ही था कि देखा सामने से वह चली आ रही है।
मुझे मेरा रूम मेट याद आ गया जो हर बात में कहता है, ‘यही तो चमत्कार है, बाकी तो सब किस्तम है प्यारे!’ मेरे होंठो पर एक मुस्कराहट फैली और मेरे मन ने कहा, हां यही किस्मत है प्यारे। वह आई और मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ गई। मैं फुर्ती से आगे बढ़ा और उससे कहा, मेट्रो खराब है। उसने अजीब निगाहों से मुझे देखा। मैं आपको पहचानता हूं, मतलब जानता हूं, अभी आपकी कविता सुनी। आखरी वाली तो बहुत अच्छी थी, बसंत वाली। मैंने जल्दी से कहा ताकि वह मुझे उठाई गिरा न समझ ले। ‘ओह, धन्यवाद। वैसे मेरी कविता में वसंत है, बसंत नहीं।’ वह हंसी। मुझे लगा उसकी हंसी में उमस के कुछ टुकड़े घुल गए हैं। गहराती शाम उसकी साड़ी पर उतर आई थी। रोशनी में जो साड़ी जामुनी दिख रही थी वह अब कुछ काली सी लगने लगी थी। उसकी सांवली रंगत और साड़ी के बीच बहुत कम अंतर रह गया था। उसके पूरे चेहरे पर पसीना चमक रहा था। उसने पल्लू से पसीना पोंछा और बुदबुदाई, ‘क्या मुसीबत है। अब घर कैसे जाऊंगी। मेट्रो खराब हो जाए तो मुसीबत बढ़ जाती है। पता नहीं सरकार क्या करती है।’
हर बात में सरकार को नहीं कोसना चाहिए। सरकार तो इंफ्रास्ट्रक्चर बना देती है, फिर उसे मैंटेन करना उस विभाग की जिम्मेदारी है।
‘तो विभाग भी तो सरकार के अधीन होते हैं’
हां पर मेट्रो स्वतंत्र इकाई है। हालांकि मैंने कहने को तो कह दिया था पर पूरी तौर पर मुझे भी नहीं पता था कि मेट्रो अलग है या नहीं। फिर मैंने सोचा इसे कौन सा पता होगा। साहित्यकार तो वैसे ही कुछ नहीं पढ़ते।
‘जो भी हो पर अभी तो मैं फंस गई हूं न’
मैं नहीं हम। मेरे हम कहने पर उसने निगाह मेरे चेहरे पर जमा दी।
मेरा मतलब है मैं भी। आप अकेली नहीं हैं। यहां देखिए कितने लोग हैं जो परेशान हो रहे हैं। लीजिए आप जामुन खाइए। मैंने जामुन का दोना उसकी ओर बढ़ा दिया। वैसे भी यह आपकी साड़ी से मैच कर रहा है।
‘आपको रंग बड़े समझ में आते हैं। मैंने तो सुना था लड़के कलर ब्लाइंड होते हैं।’ वह मुस्कराई तो मेरी जान में जान आई कि चलो ये नाराज नहीं है।
‘पर ये दो चार जामुन खाने से मेरा कुछ नहीं होगा। मुझे बहुत तेज भूख लगी है।’
तो कहीं चलें। बैठ कर कुछ खाते हैं।
‘फिर कभी’ कहते-कहते आती हुई एक एसी बस पर उसकी निगाह जम गई। एक लाल बस ऊंघती हुई सी चली आ रही थी। बस ने झटके से ब्रेक लगाए और दरवाजा खुल गया। मैं कुछ कहता-समझता उससे पहले ही वह बस में चढ़ गई और बस चल दी।
………
सितंबर की उमस से निकल कर धीरे-धीरे हवा के टुकड़े ठंडक ओढ़ते जा रहे थे। हवा में ऐसा कुछ नहीं था जिसे खुनक कहा जा सकता। पर मौसम ऐसा था जिसमें पैदल चल कर टहला जा सकता था और माथे पर पसीने की बूंदे छलकने के कोई आसार नहीं थे। उससे मिले पूरे तीन महीने होने जा रहे थे। इस बीच मैं कई छोटे-बड़े कार्यक्रमों में गया था। पर वह थी कि किसी कार्यक्रम में नजर ही नहीं आई थी। मन में अजीब सी खलबली थी। कई लोगों से अलग-अलग तरीकों से पूछ चुका था पर किसी को उसके बारे में ज्यादा पता नहीं था। मैं कई बार यूं ही बिना किसी कार्यक्रम के मंडी हाउस पर चक्कर लगा चुका था। कई पहचाने चेहरे टकरा जाते थे, बस एक वही चेहरा नहीं दिखता था जिसकी मुझे तलाश थी। मुझे रह-रह कर उसका वाक्य गूंजता था, ‘आपको तो रंगों के बारे में बड़ा पता है, मैंने तो सुना है लड़के कलर ब्लाइंड होते हैं।’ मुझे उसका नाम तक पता नहीं चल पा रहा था। मैं किसी से खोद-खोद कर पूछ भी नहीं पा रहा था कि उस दिन जामुनी साड़ी में लिपटी उस बहार का नाम क्या है। मैं मन ही मन खुद से पूछता था, ‘क्या मुझे उससे प्यार हो गया है।’ मन ठीक-ठीक जवाब नहीं दे पाता। प्यार का तो पता नहीं था पर हां इतना जरूर था कि मैं एक बार और उससे मिलना चाहता था। उससे मन भर के बात करना चाहता था, उसके साथ घूमना चाहता था और उसका नाम जानना चाहता था। जब तक मुझे उसके बारे में पता नहीं चल रहा था मैंने उसके कई नाम रख दिए थे। मैं कभी उसे कामिनी पुकारता कभी सुदर्शना, कभी सुनयना तो कभी कंचन। हर बार उसके लिए नया नाम सोचता तो पुलक से भर उठता। मैं उसे बताना चाहता था कि देखो मैंने तुम्हारे कितने नाम रखे हैं। लेकिन वो बेदर्दी ऐसी खोह में छुपी थी कि उसका पता-ठिकाना ही मिलना मुश्किल था।
मैं वक्त गुजारने की गरज से एक किताब की दुकान में चला गया। मैं अक्सर उसी दुकान से किताबें और पत्रिकाएं खरीदा करता था। मेरी आदत थी, वहां खड़े होकर तसल्ली से किताबें पलटता, देखता किसमें क्या आया है और कोई भी ठीक लगने वाली दो-चार पत्रिकाएं खरीद लेता था। मैंने अभी पीछे से पन्ना पलटना शुरू ही किया था कि देखता हूं उसकी तस्वीर के साथ चार कविताएं छपी हैं। यह साहित्य की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका थी। यहां नए लोगों का छपना तो लगभग नामुमकिन था। चाहे कविता हो कहानी या लेख। संपादक महोदय बहुत सोच-समझ कर छापते थे। इतनी भीड़ में यह इकलौती पत्रिका थी जिसकी विश्वसनीयता अब तक बनी हुई थी। मैंने फौरन उसके नाम पर नजर डाली। राजलक्ष्मी सोनवणे। लगभग एक सांस में मैंने उसकी चारों कविताएं पढ़ डालीं। उसके बाद मैंने कोई पन्ना नहीं पलटा। और जेब से तीस रुपये निकाल कर दुकानदार की ओर बढ़ा दिए। उसने पैसे लिए और पूछा, ‘बस एक ही?’
‘दो-तीन दिन बाद आकर दूसरी पत्रिकाएं भी ले जाता हूं।’
‘जल्दी आ जाइएगा। आपकी तरह एक और मैडम आती हैं वो भी हर बार यही चार-पांच पत्रिकाएं लेती हैं। वैसे भी मैं पांच प्रतियों से ज्यादा नहीं मंगवाता।’ मैं जाने के लिए मुड़ा ही था कि देखा वो सामने से चली आ रही है। जिसे मिलने के लिए मैंने जमीन आसमान एक कर दिया वह उस दिन प्रकट हो गई जिस दिन मैंने चाहा भी नहीं। वह आई और निर्लिप्त भाव से मेरे बगल से निकल कर दुकान पर पहुंच गई। उसने मुझे पहचाना नहीं था या इस पत्रिका में छपने पर उसके भाव बढ़ गए थे। मैंने मन को समझाया, उस दिन की संक्षिप्त बातचीत के सहारे कोई किसी को तीन महीने याद भी नहीं रख सकता था। जब तक मन में दोबारा मिलने की मेरी तरह शिद्दत न हो। पर मेरी वही शिद्दत बगल से गुजर गई और मैं वहीं जड़ खड़ा रहा।
…………….
घर लौट कर समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या खटका है। उसका मुझे न पहचानना या उस प्रतिष्ठित पत्रिका में चार कविताएं छप जाना जिसमें छपने के लिए मैं कई महीनों से कोशिश कर रहा हूं। यह तो किसी कार्यक्रम में दिखती भी नहीं फिर भी चार कविताएं छपवा लीं। जबकि उस पत्रिका के संपादक को मैंने कई बार आत्मीय नमस्कार किया था और वह मुझे पहचानते थे। मैंने कविताएं पढ़ीं। कविताएं वाकई अच्छी थीं। वह दूसरे युवा कवियों के मुकाबले भाषा और बिंब के साथ बहुत खूबसूरत से खेलती थी। उसकी हर कविता आखिर में एक पंच छोड़ती थी। मैंने उन कविताओं को दोबारा पढ़ा, तिबारा पढ़ा। हर बार उसकी कविता नए अर्थ देती थी। मैं उन कविताओं को तबल तक पढ़ता रहा जब तक मैं थक कर उसकी कविताओं पर ही औंधा हो कर सो नहीं गया। रविवार की दुपहरी की नींद खिंच कर यदि देर शाम तक चली आए तो मुझे हमेशा झुंझलाहट होती है। लेकिन अंधेरा घिर जाने के बाद मैं जागा तो मुझे खुद पर बिलकुल गुस्सा नहीं आया। मैंने हाथ बढ़ा कर लाइट का बटन दबा दिया। ट्यूबलाइट की दुधिया रोशनी में मैंने एकबार फिर उसकी कविताएं पढ़ी और जी भर कर उसकी तस्वीर को निहारा। फोटो बहुत स्पष्ट नहीं थी पर मैं उसे साक्षात दो बार देख चुका था इसलिए मुझे उसकी वही मुस्कराहट तस्वीर में भी महसूस हुई।
………..
खचाखच भरे हॉल में आज एक सम्मान समारोह था। कई साहित्यकारों के बीच उसे भी युवा कवि सम्मान मिल रहा था। आज दफ्तर में बहुत काम होते हुए भी मैं यहां आया था सिर्फ उसके लिए। यह बात वह जानती नहीं फिर भी। आज वह सुर्ख सिंदूरी ब्लाउज पर हल्के हरे रंग की साड़ी पहने हुई थी। उसका चेहरा भी बहुत खिला हुआ था। वह स्टेज पर बहुत गंभीर मुद्रा में बैठी हुई थी। मुझे थोड़ी देर पहले चाय के दौरान उसका सबसे हंस कर मिलना याद आया। वह बहुत सौम्यता से बात करती है। मुझे याद आया थोड़ी देर पहले ही मैंने उससे कहा है कि मुझे आप भी पसंद हैं और आपकी कविताएं भी।
उसने बिना नाराज हुए कहा था, ‘कतार में लग जाइए आपका नंबर 20वां है। 19 लोग मुझसे ये बात कह चुके हैं!’ वह खनकती हंसी के साथ चली गई।
मैं हिम्मत कर के फिर उसके पीछे गया और कहा सच में।
उसने पलट कर कहा, ‘मैंने कब कहा आप झूठ बोल रहे हैं?’
अब आप ये सब फेसबुक पर लिख देंगी, मैंने सवाल किया।
‘मैं फेसबुक पर नहीं हूं। और अगर होती तब भी नहीं लिखती। बिना फेसबुक पर लिखे भी मुझे निपटना आता है। मैं कोई बादशाह नहीं जो ऐलान कर जंग करूं।’
वह मुस्करा कर हॉल में चली गई। तालियों की गड़गड़ाहट से मेरी तंद्रा टूटी। कैमरामैन उसे सामने देखने के लिए कह रहे थे। वह अपने प्रशस्ति पत्र को सामने दिखा कर मुस्करा रही थी। मैंने भी अपने मोबाइल में वह क्षण कैद कर लिया। मेरे बगल में किसी ने कानाफूसी की, ‘निर्णायक भी दलित, सम्मान पाने वाली भी दलित।’ मेरे अंदर बैठा मिश्रा धक्क से रह गया। ‘दलित।’ बस यही शब्द मैंने सुना बाकी अनसुना ही रह गया। पर ये कविताएं अच्छी लिखती हैं, मैंने पलट कर प्रतिवाद किया।
‘हां, लिखती होंगी। लेकिन इस साल तो और भी अच्छे लोग थे। पर चरण जी तो खोज-खोज कर दलित लाते हैं।’
प्रतिभाशाली दलित, मैंने फिर कहा। पर मुझे खुद लगा जैसे दलित शब्द कहीं दूर से गूंजता हुआ मेरे कंठ से निकला है। मैं अनमना सा वहां बैठा रहा। कार्यक्रम खत्म होने के बाद जब मैं निकला तो देखा बहुत से लोगों के बीच वह घिरी हुई है। कोई उसका फोन नंबर मांग रहा है तो कोई उसका पता जानना चाहता है। मैंने ठिठक कर उसकी ओर देखा, उसने बहुत आत्मीय निगाह मैं डाली। यह ऐसी निगाह थी जिस पर निहाल हुआ जा सकता था। मैं मुस्कराय और बढ़ गया। शाम उसके सिंदूरी ब्लाउज की तरह धरती पर उतर रही थी। मैं अपने अंदर बैठे अबीर मिश्रा से लड़ रहा था। मैंने उसके लिए एक कविता लिखी थी, सोचा था आज कार्यक्रम के बाद उसे जरूर दूंगा। लेकिन मिश्रा मन था कि सोनवणे पर जाकर अटक गया था। मैं मेट्रो स्टेशन पर पहुंचा तो वही जामुन बेचने वाली बैठी थी। मुझे लगा वह खड़ी है और मैं उसे जामुन दे रहा हूं। वह कह रही है, ‘एक-दो जामुन से कुछ नहीं होगा, मुझे भूख लगी है।’ वह दुबली पतली लड़की जिसे मैं ठीक से जानता भी नहीं, वह लड़की जिससे मिलने के लिए कल तक मैं बेताब था आज उससे दूर जा रहा हूं। मेरे पढ़े-लिखे मन ने मुझे धिक्कारा। डिग्री तो मेरे पास इंजीनियरिंग की थी, नौकरी भी मैं अपनी डिग्री वाली ही करता था। पर समझता खुद को बुद्धिजीवी था। मुझे लगता था, कंप्यूटर पर खटर-पटर करने वाले मेरे दफ्तर के लोगों से मैं अलग हूं। पर नहीं मैं तो उन्हीं में से था जो किताबें फैशन के लिए पढ़ते हैं।
मुझे उसकी गहरे काले रंग की आंखें याद आ गईं। मैं फौरन पलटा और तेज-तेज कदमों से वापस लौट गया। खाना शुरू हो चुका था, लोग प्लेटें हाथ में लिए बतिया रहे थे। वह किसी वरिष्ठ से बतिया रही थी। मैं उसके पास जाकर खड़ा हो गया।
‘अरे आप कहां चले गए थे?’
‘इतनी भीड़ में भी आपको पता चल गया कि मैं कहीं गया था।’ मैंने उसकी बात का जवाब देने के बजाय सवाल किया।
‘आप मेरे सामने ही तो गेट से बाहर निकले थे।’ म
मैं चुप रह गया।
‘मैं तो सोच रही थी आपके साथ बाहर खाना खाऊंगी। उस दिन आप कह रहे थे न, जिस दिन मेट्रो खराब हो गई थी।’
आपको याद है। मुझे आश्चर्य हुआ।
वह धीमे से मुस्कराई। उसके थोड़े से बाहर निकले हुए दांत हल्के से बाहर निकल आए। वह एक मासूम खरगोश की तरह लगने लगी। मैंने उससे कहा, एक बात कहूं?
उसने कहा, ‘पहले प्लेट ले आइए, वर्ना खाना खत्म हो जाएगा। क्योंकि मुझे मालूम है कि आप क्या कहना चाहते हैं।’
हो ही नहीं सकता कि आपको मालूम हो कि क्या कहना चाहता हूं।
‘दर्जनों लोगों से जो एक लड़की का नाम जानना चाहता हो वह क्या कहेगा।’
मेरी आंखें आश्चर्य से फैल गईं। वह शरारत से मुस्कराई।
‘आपको पता है, मेरा बड़ा भाई कहता है मुझे इंटेलीजेंस सर्विस में होना चाहिए।’
तो मैं क्या समझूं।
‘फिलहाल तो इतना ही कि आप खाना खाएं और हम मेट्रो स्टेशन चलें, साथ-साथ।’
उसने साथ-साथ पर जोर दिया।
मैंने कहा कि भूख नहीं है। उसने तुरंत कहा, ‘मैं कहीं नहीं जा रही। खाना खा लीजिए। कुछ बातें भरे पेट ही समझ आती हैं।’
मतलब, मैंने डर कर कहा।
‘यही कि जब लंबे सफर पर चलना हो तो मन खाली और पेट भरा होना चाहिए। क्योंकि पेट खानी और मन भरा हो तो न नजरें कहीं ठहरती हैं न दिल। जब किसी से बात करने की मिलने की संतुष्टि पाना हो तो पेट भरा होना जरूरी है। एक मिनट ठहरिए।’ कहते हुए वह चली गई। मैं वहीं खड़ा रहा। जब वह लौटी तो उसके हाथ में करीने से परोसी गई एक प्लेट थी। उसने प्लेट मेरे हाथ में थमाई और बोली, ‘आपको पता है एक अच्छा कवि वही है जिसे पता हो कि पाठक क्या चाहता है।’
और एक अच्छी पत्नी? cमैं बोलने को तो बोल गया लेकिन मैंने महसूस किया कि मेरे पैरों में कंपन हो रहा है।
‘आपको पता है एक अच्छा पाठक और आलोचक भी वही है जो कवि को जज करने की जल्दबाजी न दिखाए।’
मैं कवि को जज नहीं कर रहा।
‘आप राजलक्ष्मी सोनवणे को नहीं अभी तक एक कवि को ही जानते हैं।’ उसने अपने दांत होंठों के बीच दबा लिए। वह एक मासूम की खरगोश की तरह दिखने लगी। उसने कहा, ‘चेहरे बदल जाते हैं। लेकिन इंसान हमेशा वही रहता है। आपको पता है मेरी दीदी कहती हैं, जिसे सुबह-सुबह बिना नहाए, बिना ब्रश किए देखने पर भी अच्छा महसूस हो वही असली जीवनसाथी है। तैयार होकर तो सभी अच्छे लगते हैं। यह तभी हो सकता है जब दो लोगों के विचार मिलते हों। तभी सुंदरता और पहनावे जैसी बातें गौण होती हैं।’
मैं उससे कैसे कहता कि मेरे अंदर बैठे मिश्रा की परेशानी दूसरी है। प्लेट अब तक उसके हाथ में थी। मेरे कंधे पर बड़ा सा बैग टंगा था। उसने अधिकार के साथ एक हाथ से मेरे कंधे से बैग लेते हुए मुझे प्लेट पकड़ा दी। उसने सहजता के साथ बैग अपने कंधे पर टांगा और कहा, ‘मैं वहां प्रज्ञा दीदी के पास हूं। खाना हो जाए तो वहीं आ जाना, फिर साथ में मेट्रे स्टेशन तक चलेंगे।’ कंधे से बोझ उतरते ही मैंने खुद को बहुत हल्का महसूस किया। मैं उसे हॉल के दूसरे कोने में जाता देखता रहा। एक छोटी सी पोनी टेल उसके चलने से यहां-वहां झूल रही थी। मैंने मन ही मन कई बार उसका नाम दोहराया।
मैं आराम से खाना खाने लगा। पेट भरा हो तो देर तक बातें की जा सकती हैं, खूब सारी बातें।

आकांक्षा पारे काशिव