इन दिनों फिल्मो का पैर्टन बदल गया है। कुछ सालों से कुछ नयी विचारधारा की फिल्में बनने लगी हैं। गोलमाल और जाने भी दो यार जैसी फिल्में आई तो दूसरी ओर स्त्री जैसी फिल्में भी। बाॅलीवुड की फिल्मों की अपनी शैली है और विषय है। कम बजट की फिल्मों का भी अपना मिजाज है। संदेश है। आकर्षण है। लाफटर है। और समाज की बुरी सोच पर चोट करने का अपना तरीका है। ‘इमामदस्ता’ समाज की कई अनकही बातें है,उसे कह दिया है।
यू.पी टोन का तड़का
पहली बार रिजवान सिद्दीकी के निर्देशन में बनी फीचर फिल्म ‘इमामदस्ता’ में दर्शकों को कई सुखद आश्चर्य होगा। इसलिए कि अभी तक दर्शक बाॅलीवुड की फिल्में देखते आए हैं। वो इस फिल्म में भी वही सब देखना चाहेंगे। रिजवान ने निराश नहीं किया। निर्देशन टाइट है। फिल्म की कहानी में ठहराव नहीं है। नदी सा प्रवाह है। क्यों कि रिजवान ने समाज की मूल समस्या में वयस्क सोच की कल्पना को पर्दे पर उतरा है , लाफटर और संवाद में अवधी-हिन्दी को मिक्स कर यू.पी टोन का तड़का भी शामिल किये हैं। जो मन को हंसाने के साथ गुदगुदाता भी है। रिजवान को न जानने वाले अनजान दर्शक के मन में फिल्म देखने से पहले जो सवाल उठेंगे, वो धीरे- धीरे फिल्म का अंत होने तक खत्म हो जाएगा। फिल्म में दो लड़कों की कहानी है। जो पूरी शिद्दत के साथ अपने पात्र को जीते हैं। फिल्म का नाम ‘इमामदस्ता’ है,लेकिन इमामदस्ता है क्या अंत में पता चलता है।
सच्ची घटना पर फिल्म
लेखक -निर्देशक रिजवान सिद्दीकी ने सच्ची घटना से प्रेरित होकर छोटे बजट की फ़िल्म बनाई है.यह फिल्म अपने कंटेंट के दम पे बाॅलीवुड की बड़ी -बड़ी फिल्मों को पीछे छोड़ दिया है। सच्चाई यही है कि कहानी कहने के लिए शहर का छोटा -बड़ा होना मायने नहीं रखता। लखनऊ में अपनी छोटी सी प्रोडक्शन टीम के साथ मिलकर इस फिल्म को बनाया,इसमें ज्यादातर कलाकार स्थानीय हैं। कहानी दो बेरोजगार नव युवक मनोज और फिरोज के इर्द गिर्द घूमती है। मनोज बी.ए.पास चलता पुर्जा टाइप का नौजवान है, जो छोटी-मोटी नौकरी कर के अपना गुजर बसर कर रहा है। जबकि फिरोज एक आदर्शवादी पत्रकार है। अपने उसूर्लों के चलते बेरोजगार है। लेकिन उसकी कलम तेजाब उगलती है। धर्म के बाबाओं के खिलाफ, समाज के ठेकेदारों के खिलाफ। वो परेशान रहता है कि आखिर सब कुछ है तो फिर समाज इतनी प्रगति क्यों नहीं करता। लोग बेेरोजगार क्यों है? समाज के सीने पर दौड़ते सवालों को वो पकड़ता है और लिखता है।
एक नयाब तरीका
कहानी में हालत तब बदल जाते हैं जब मनोज और फिरोज दोनों बेरोजगारी के दौर से जूझ रहे होते हैं। और ऐसे में उनके घर शादी का प्रपोजल ले कर दो अजनबी महमूद आलम और जाॅं निसार आ जाते हैं। गुरबत में अपनी जिंदगी को झेलते इन दोनों लड़कों पे जैसे कयामत टूट पड़ती है। दो वक्त के खाने के लिए संघर्ष करते मनोज-फिरोज पर मेहमानों की खातिरदारी का बोझ उन्हें तोड़ देता है। तंगहाली में भी जिन्दगी कैसे खूबसूरत होती है वह काबिले तारीफ है। इन सबके बावजूद मेहमान घर से जाने का नाम नहीं लेते। बिन बुलाये मेहमानों से मनोज और फिरोज एक नयाब तरीका ढूंढ निकालते है। उनका यह तरीका हंसी के फव्वारे से भरा हुआ है।
अनूठा हास्य व्यंग्य
जिन्दगी की दुश्वारियों को अनूठे हास्य व्यंग्य से हैंडल किया गया है। धार्मिक अंध विश्वास राजनीति और पत्रकारिता के गिरते स्तर को भी ये फिल्म कमाल तरीके से छूती है। फिल्म की कहानी गीत स्क्रीनप्ले और संवाद रिजवान सिद्दीकी ने लिखे हैं। एक जगह संवाद है,जरा सी नील है क्या? नील से कपड़े खिल खिला उठते हैं। अजी जनाब वक्त लगता है,रिश्तों को खुलने और खिलने में।
कई प्लेट फार्म पर है इमामदस्ता