
Fathers smell
“ यदि परिवार में बेटे की पत्नी को उपेक्षा और तिरस्कार का दंश ससुर की तरफ से मिलता है,तो जीवन की तस्वीर बदल जाती है। फिर उस तस्वीर में प्यार के रंग मुश्किल से चढ़ते हैं। ऐसे में पिता की मौत किसी भी बेटे को अंदर तक हिला देती है।दुख की इस घड़ी में पत्नी पति के साथ बेटे को भेज देती मगर खुद नहीं जाती। पिता की मौत का एहसास बेटे को अंत तक नहीं होता,मगर उसके मन की हांडी में रिश्ते का पानी खौलते रहता है। पिता के दाह संस्कार के बाद बेटे को एहसास होता है,कोई गंध है जो उससे लिपट गयी है। पिता के नहीं होने पर वो कौन सी गंध है,जो बेटे से लिपट जाती है,पढ़िये दिल्ली की हिन्दी और संस्कृत की विदुषी लेखिका,कल्पना मनोरमा की मन की भाषा में लिखी यह कहानी-
पिता की गंध
अब तक मैं दो बच्चों का पिता बन चुका था। परिस्थितियाँ मौसम की तरह बदल रही थीं। अगर कुछ नहीं बदला था तो-वह था भाई-बहनों और पत्नी के साथ झगड़ना। गाँव में पिता का चुकते जाना। और इन सभी को इंच भर भी ख़ुशी न दे पाने का मेरा अकथ दुःख अकेले सहना। मेरी पत्नी उम्र की कगारों से लगी दिन-दिन छीज रही थी। पिता अस्सी वर्ष लाँघने के बाद भी मूडी और धुनी बने हुए थे। भाई-बहनों ने मनमर्जी की खाइयाँ खोदने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी।समता और स्नेह का आकांक्षी मैं, निराशा की शरण जा लगा था। जबकि उम्र के चौथे पड़ाव तक पहुँचते हुए बहुतों के पिता, करुणा की वरुणा बन जाते हैं। पिता के भीतर माँ वाला ममतालु पक्ष उभरने लगता है। मगर मेरे पिता वैसे ही थे, जैसे वे मेरे बचपन या अपनी जवानी में रहे होंगे।
माँ दबी जुबान में कभी-कभी कह उठती थीं, ”तुम्हारे पिता बिन मेहनत कमाए पैसों के भूखे…आत्मकेंद्रित मानुष हैं।”
उन दिनों मैं किशोर होता जा रहा था। पिता के प्रति माँ का कथन, बुरा ही नहीं लगता, बल्कि माँ के प्रति बिद्रोही हो उठता। अब लगता है कि काश! अपनी माँ पर यकीन कर लेता। कम से कम मेरे अपनेपन से माँ तो अघाई रहतीं। माँ को श्रद्धा से सुन लेने का पुन्य तो कमा लेता। मैंने देखा था, माँ ज्यादा कुछ नहीं, पिता का मन चाहती थीं। उनसे बातें करना चाहती थीं। उनकी बातें सुनना चाहती थीं मगर पिता से अपनेपन का सुख उन्हें कभी नहीं मिला। जब और बड़ा हुआ तो पिता के मन से जाना, मेरी माँ सुंदर स्त्री नहीं थीं और पिता को सुन्दरता से प्रेम था। माँ अपना जीवन हम भाई-बहनों में बाँट चुकी थीं। अपना सुख-दुःख बाँटने के लिए कोई बहुत अपना चाहिए होता है। माँ मुझे अपना मान लेना चाहती थीं। मगर मैं पिता की भक्ति में अग्रणी बनना चाहता था। पिता की आँखों में ऊँचा स्थान पाने का अभिलाषी….।
उस समय ऐसा लगने लगा था कि पिता पूरे मन से मेरे साथ हो जाएँ तो दुनिया चुटकियों में जीत लूँगा..। अब नहीं, हकीकत मुंह खोले मेरे आगे पसरी है। माँ खो गईं। और इसी उहापोह में बचपन से जवान हो गया। खुद भी पिता बन गया। और अब, अधेड़ों में शामिल होकर खुद को ही चीन्ह नहीं पाता हूँ। सोचता रहता हूँ कि आख़िर मैं चाहता क्या हूँ…? हाँ, इतना जरूर समझ चुका हूँ कि पिता होना आसान बिलकुल नहीं। पिता का जीवन आग का दरिया है। उसी में तैरकर जीवन पकड़ने का कार्य, पिता की नियति..।
वैसे तो मेरा जीवन कई कई कहानियों का गुच्छा है लेकिन एक दिन की बात बताता हूँ-सुबह-सुबह मैं दाढ़ी बना रहा था। शीशे में पिता प्रतिबिम्बित-से जान पड़े। पहले चौंका फिर पलकें झपकाईं और चुपचाप दाढ़ी बना ली। मन बचपन में लौट गया। उसे लौटने दिया। छाती भूले अहसासों को याद कर थरथराती रही। उसी बीच मैंने ऑफिस जाने की तैयारी कर ली।
मोटरसाइकिल पर बैठने चला तो अचानक पैरों की तरफ नज़र चली गयी। अरे! मेरा पाँव तो पिता के पाँव जैसा है। सिर झटक कर दफ्तर पहुँच गया। लैपटॉप पर काम करने बैठा तो हाथ की उँगलियाँ फिर से पिता जैसी दिखने लगीं। अब ये हद थी। अन्यमनस्क सा उठकर मैंने पानी पिया। ऑफिस की बालकनी में टहलता रहा। सड़क पर चल रहे बूढ़ों में पिता को खोजने लगा। मन था कि उड़नबाज़ी पर उतर आया तो बॉस से जाकर कहा ”आज मन भयभीत है। क्या करूँ बॉस?” सुनते ही बॉस बोले—”कपिल, आराम की जरूरत है आपको। घर जाकर आराम करो। सब ठीक हो जाएगा।”
ऑफ़िस में सदा नियमित रहने का प्रतिफल था। वरना काम के आगे कौन पूछता है व्यक्ति को..? मैं घर लौट आया। बच्चों के स्कूल से लौटने का वक्त हो रहा था इसलिए दरवाज़ा उढका मिला।जाकर सोफे पर निढाल पसर गया। घर सन्नाटे धुन रहा था। पत्नी अपने नए सिले कुर्ते में तुरपाई कर रही थी। पहले अचानक मुझे आया देखकर वह डरी, फिर दौड़कर पानी ले आई। मैंने उसे समझाया—“चिंता की कोई बात नहीं। मन ख़राब है। उदास भी है। आराम करूँगा तो शायद ठीक हो जाएगा।” थोड़ी देर वह मेरा माथा टटोलती रही फिर पास में बैठकर तुरपन करने लगी। मैंने पूछा,खाना बन गया? उसने हाँ में पलकें झपका दीं।
ज़माने-बाद मैं उसे ध्यान से देख रहा था। उसके रंग-रूप में काफ़ी नहीं, बहुत परिवर्तन आ चुके थे। मुझे घूरते देख वह थोड़ा असहज हो गयी। जाने क्या सोचकर वह अन्य कामों में लग गयी।पत्नी ने पीठ फेरी और मैंने पानी का गिलास उठाकर मुँह से लगाया ही था कि फ़ोन बज उठा—कपिल ! तेरे पिता सीरयस हैं। जल्दी गाँव चले आओ। सुबह से हो रही मन की विचलन को जैसे थाह मिल गयी। मन पर एक बोझ उतर आया। बताने वाले ने बोलकर फ़ोन रख दिया। पिता को सिगरेट पीने की बुरी लत थी। अक्सर फेफड़ों से जुड़ी तकलीफ़ में देखता आया था उन्हें। लेकिन ‘सीरियस’ शब्द अप्रत्यासित था मेरे लिए। ध्यान गया—पिता बीमार नहीं, सीरियस हैं। फिर भी मेरे भाई-बहनों में से किसी ने मुझे बताना ज़रूरी नहीं समझा..? गाँव का लड़का न बताता तो मैं जान ही न पाता….।
तभी तो कहता हूं क्रूरता पिता से नहीं, सहोदरो से कम नहीं मिली। मेरी गलती अगर ध्यान करता हूँ तो बस इतनी कि मैंने अपना परिवार गाँव में नहीं छोड़ा और बच्चे होने के बाद माहवार अपनी पूरी तनख्वाह पिता के खाते में जमा नहीं की। इसके अलावा मैंने किसी भी प्रकार की अनीति की हो तो ऊपर वाला मुझे दंडित कर सकता है।
“क्या बड़बड़ा रहे हो” पत्नी बोली।
पिता के परिवार के प्रति एक वितृष्णा उभर आई मगर कुछ बताया नहीं उसे।सब बातों को किनारे कर बिना देर किये मैंने ऑफिस में ख़बर कर दी। बॉस सुबह से ही मेरी परेशानी से परिचित थे। तुरन्त छुट्टी साइन कर दी। मैंने भी गाँव जाने का मन बना लिया। फिर सोचा पैसों का थोड़ा ज्यादा इंतजाम कर, सुबह निकल जाऊँगा। वैसे भी दिन आधे से ज्यादा निकल चुका था। जाऊँगा तो कम से कम हफ्ते भर पिता के साथ रुकूँगा।
पिता की विरोधी मौन घोषणाओं ने हमारे बीच जो खाई खोद रखी थी, शायद पाट सकूँ। पिता के मन में दबी-दबी प्रीति दिन भर उनके सामने रहने से शायद उभर आए ? जीवन के खुले घावों को मूंदने का मौका मिल जाए ? एक बार उनके सीने पर सिर टिका कर अपना मन हल्का कर सकूँ। मैंने सोचा।पिता का सीरियस होना, मेरे लिए डरावनी खबर थी। न बैठने में चैन था, न टहलने में। मन और शरीर अलग ढंग से काम कर रहे थे। बच्चे स्कूल से लौट आये थे। पत्नी उन में लग गयी। मैंने शर्ट उतार कर सोफे पर रखी। रूमाल, घड़ी, पेन सब टेबुल पर रखकर चप्पल पास में सरका दी। फिर जीन भी उतार दी और वहीं लेट गया। पत्नी ने तौलिया लपेटने का इशारा किया मगर मैं नहीं उठा।
बच्चे कब आए, खाना खाया और दोपहर कब शाम में बदल गयी, पता ही नहीं चला।”जाना नहीं गाँव..?” पाँच बजे पत्नी ने झकझोर कर उठाया।“जाना क्यों नहीं..? क्या पागल-ऊगल हो गयी हो?” मैं उठकर बैठ गया।
“फिर बैठे क्यों हो…? जाओ। शाम होने को है।”
“अब सुबह जाऊँगा।”
“फिर ठीक है। बताओ खाना में क्या बना दूँ?”
“ मत बोलो। जो ठीक लगेगा,बना दूँगी।”
पत्नी किचन की ओर चली गयी। मैं बच्चों की ओर…। दोनों सकूल के कार्यों में व्यस्त थे। बच्चों के पास बैठकर पिता के बारे में बातें करना चाहता था। जैसे सब करते हैं, ताकि बच्चों की श्रद्धा अपने दादा के प्रति बढ़ सके। बहुत सोचने के बाद भी मुझे बातों का सिरा न मिल सका। सो सीधे बोल दिया-बच्चो! मेरे पिता सीरियस हैं।
बच्चे बेस्वाद से अवाक रह गए। मेरी तमन्ना थी– बच्चे मेरे पिता को महत्वपूर्ण समझें। बेचैन हो जाएँ। दादा दादा कर, उनकी बातें याद करने लगें। चाहकर ऐसा न हो सका। बच्चों के पास दादा से जुड़ीं मधुर स्मृतियाँ नहीं थीं। स्नेह का तार खिंच ही नहीं सका तो झनझनाकर संगीत फूटता भी कैसे..?
मैं ठहरा निरा बपुरा। इस संवेदनहीनता का कारण बच्चों को मानता था था लेकिन अब समझ चुका था कि उसका कारण भी मैं खुद ही था। पिता को हम दोनों यानी पति पत्नी अप्रिय हो चुके थे। मेरी शादी में दहेज भरपूर नहीं मिल सका था। जैसा पिता चाहते थे। इस बात से वे क्षुब्ध ही नहीं, कुपित रहने लगे थे। मेरे पिता और भाई-बहन बिन बोले चाहने लगे थे कि मैं अपनी पत्नी को मायके छोड़ दूँ, हमेशा हमेशा के लिए। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। पत्नी को छोड़कर मैं अपने ससुरजी का दिमाग ठिकाने लगा दूँ। पर ऐसा करना मैंने उचित नहीं समझा। अब सिर्फ पत्नी होती तो कर भी देता। शादी के तुरंत बाद बेटा आ गया। पत्नी को छोड़ना मतलब बच्चे की दुर्दशा करना। मैं अच्छा पति भले नहीं था मगर पिता अच्छा बनना चाहता था।
ज्यों-ज्यों बेटा पढ़ने लायक हुआ। उसे लेकर मैं नौकरी पर चला आया। पत्नी को साथ आना ही था। बस, मेरे और पिता के बीच पतली-सी दरार बन गयी। उसके बाद भाई-बहनों के सहयोग से खाई और फिर सागर बन गई। पिता की करुणा का व्यास मेरी ओर से सिकुड़ता चला गया। बावजूद इन बातों के मैं अपने बच्चों को दादा के लिए विह्वल देखना चाहता था। प्रेम में बहते आँसू
मन का मलाल धो देते हैं। मगर मेरे लिए ये सोचना असमंजस का वाकया बन गया। मेरी ऊहापोह बच्चे समझ गए। छोटा पानी ले आया। बड़े का ध्यान अपनी ओर मोड़कर मैंने कहा—“पार्थ, तुम गाँव चलोगे न ? तेरे दादा सीरियस हैं।” बेटे ने हाँ में सिर हिला दिया। मन को थोड़ा संतोष हुआ।
“पापाजी, आपके और दादाजी के बीच ‘स्वीट’ ‘बॉन्डिंग’ की बात बताओ न..!”
छोटा बेटा मेरा ध्यान भटकाना चाहता था। उसकी मुग्ध छवि देख मैं सच में सोचने लगा। बचपन से लेकर अपनी जवानी। बाद, पत्नी और बच्चों तक…फंदे-फंदे जीवन उधेड़ा। बॉन्डिंग वाली फुलकारी न पाई। छाती में दबी कराह गले तक जरूर लुढ़क आई। बोलने में दिक्कत होने लगी। मैं उठकर पत्नी की ओर बढ़ गया। पत्नी संध्या-आरती की तैयारी में थी। गैस पर टमाटर-आलू की सब्जी पक रही थी। जो मेरी पसंद को ध्यान में रखकर बनाई जा रही थी।
मैं चुपचाप पत्नी के सामने जाकर खड़ा हो गया। मैं चाह रहा था—पत्नी मेरे दुःख को ज्यादा समझे। पिता की बातें करे।उसने एक नज़र मेरे ऊपर डाली मगर साफ पता चल रहा था कि वह अपने में व्यस्त है। अंत में मुझे कहना पड़ा-“अब फिलहाल मंदिर बंद ही रहने दो। गाँव चलने की तैयारी करो। मैं सोच रहा हूँ, हम सब हफ्ते-दो हफ्ते पिता के पास चलकर रहें।”
इतना बोलकर मैं उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए मौन हो गया। वह माचिस के बारूद लगे सिरे पर तीली घिसती रही। तीली का मसाला टूटकर जब ज़मीन पर गिरा तब उसने आँखें उठाकर देखा। “बाबूजी शायद ही बचें..। मैंने उस वक्त बताया नहीं, लड़का कह रहा था। मैंने उतने ही दुख और आंतरिक कोलाहल के साथ कहा, जितना कोई छोटा बच्चा कहता। बिना जला दीपक मंदिर में रखकर उसने पट बंद कर दिए।
“जल्दी से दो रोटियाँ सेंक देती हूँ। बच्चों के साथ तुम रात में ही निकल जाओ। पत्नी मेरी ओर देखते हुए बोली और धनियाँ कतरने लगी।“तुम नहीं चलोगी..?मैंने कहा और बहुत देर उसकी पीठ देखता रहा।वह नहीं बोली। उसकी चुप्पी को हाँ मानकर मैं तैयारी करने लगा। अलमारियाँ खोल रहा था।पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था। मेरी मनोदशा देख पत्नी झटपट मदद करने लगी।पत्नी गहरे मौन में थी। फिर भी मेरा मन कह रहा था कि मैं उससे पूछूँ—”तुझे रोना क्यों नहीं आ रहा?
मेरे पिता के लिए कतई दुःख नहीं..?
लेकिन मौका ठीक नहीं था सो टालता गया। बैग लगाने के बाद, उसने खाना लगाया। मेरी इच्छा खाने की हुई नहीं। मैं तो बस रात किसी तरह बीतने की प्रतीक्षा में था। जब वह काम समेट कर सोने के लिए कमरे में जाने लगी तो मैंने कहा-“अपनी भी तैयारी करो प्लीज अंकिता। हालत में सुधार न हुआ तो रुकना पड़ेगा। पन्द्रह दिन की छुट्टी माँगी है। उम्मीद है मिल जायेगी। और फिर पिता की संतानों में मैं ही बड़ा हूँ। बोलने में अभी अच्छा नहीं लगेगा, पर सत्य ये भी कि पिता की अंतिम क्रिया कौन करेगा..? मैंने कर्मकांड के बाबत अर्जेंसी जताई…।
क्योंकि मैं जाग रहा था। अन्दर सोने नहीं गया था। इसलिए पत्नी भी सोफे के पास जमीन पर दरी बिछाकर लेट गयी। वह दिन भर की थकी थी। वह अलसाई थी। मैं अपने तापों का ताया अंदर से दरक रहा था। वह नींद में जा रही थी, मैं बार-बार उसे घर चलना ही होगा, बोलता जा रहा था।
एकबारगी वह चिढ़ गयी-“देखो कपिल, ये वक्त बहस करने का नहीं। बच्चों को लेकर चाहे सुबह या अभी, चले जाओ। ऐसा नहीं कि मुझे दुःख नहीं, तुम्हारे दुःख में सहभागी हूँ। मगर चल नहीं सकूँगी। जब ससुरजी ने मुझे बहू समझा ही नहीं तो जाने का अब फायदा ही क्या…? दिखावे के लिए नहीं जा सकती।
“आख़िर जताना क्या चाहती हो?”
“कुछ भी नहीं।”
“फिर ये ड्रामा क्यों ?” मैंने खौलता आक्रोश उसके आगे उगला।
“हाँ, ड्रामा ही करती हूँ, मान लो। तुम छोड़ सको तो मेरे हाल पर मुझे छोड़ दो।”
“नहीं छोड़ सकता।”
“तो फिर उस वक्त भी पकड़ कर रखना था जब तुम्हारे घर वाले छीछालेदर कर रहे थे मेरी। कभी
नाजायज छोड़ो जायज एक बात ही मान लेते। तो आज मैं भी..।”
अब मेरे पास कोई शब्द नहीं था। पत्नी के पास न शब्दों की कमी थी और न ही उसके दुखों की। वहबोलती जा रही थी। मेरा प्रतिरोध गूँगा हो गया।रात की अंधेरी फिसलन में मेरे दुख आकार लेते दिख रहे थे। मेरी पत्नी उम्र भर की कड़वाहट उगने के लिए तत्पर हो चुकी थी।
“कपिल, रिश्तों का अपना एक डायलेक्टिक्स होता है। जिसे न तुम्हारे पिता ने समझा और न ही तुमने। इसलिए जीवन की व्यवस्थाओं में प्रेम या मुक्ति के किसी यूटोपिया का पीछा करना, अब मुझे जोखिम भरी मृगमरीचिका लगने लगा है। अपने परिवार से जुड़ने की तुम्हारी उत्कट जिजीविषा से अनभिज्ञ नहीं हूँ। और न ही मैंने चाहा कि तुम उन्हें देखो नहीं, तब्जोह न दो। खूब दो, आखिर उन्हीं के बीच उगे, बढ़े हो। लेकिन मुझे भी तो इंसान समझो! तुम जिन लोगों के लिए व्याकुल हो उनसे दुत्कार के अलावा तुम्हें भी कुछ नहीं मिला। जानती हूं। मुझे छोड़ो, अगर तुम्हें भी सम्मान मिल जाता तो लगता तुम्हारे त्यागों के बदले कुछ तो ठीक हुआ। धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का, होने से बच गया। इसलिए कहती हूँ-अपने सन्नाटों और कोलाहलों के साथ तुम अकेले जाओ। अपनों का “साथ” महसूस करो और उनका “साथ” बनो। पिता से जाकर मिलो। अपनी कहो, उनकी सुनो। मैं जानती हूँ, तुम्हें अच्छा लगेगा। इस स्थिति में भी अपने नजदीक मुझे देखकर उन्हें अच्छा नहीं लगेगा।
मेरी जीवन भर की मुंदी चीखें बिथम कर हूकें बन जायेंगी।” पत्नी बोलकर बिसूरने लगी।
“ये परेशानी का समय है। कौन क्या महसूस करेगा ? करने दो।” मैंने कहा।
“नहीं कपिल! दुःख को इतना हल्के में मत लो। दुःख अपनों के साथ होने की मीमांसा का
आधारभूत सूत्र है। मैं उनकी नहीं हूँ। कारण तुम जानते हो इसलिए मुझे कुछ बताना नहीं है। तुम पूरे मन से गाँव जाओ। माँगनी पड़े तो अपने पिता से माफ़ी भी माँग लेना। मुझे छोड़ दो मेरे हाल पर।अच्छी बहू का तमगा नहीं चाहिए मुझे। मेरी आत्मा को शांति चाहिए। जो न जाकर ही मिलेगी।”
पत्नी वह सब याद दिलाना चाहती थी, जो ज्यादितियाँ मैंने और मेरे परिवार ने उसके साथ जीवन भर की थीं। और जिन्हें मैंने कभी ज्यादितियों में गिना ही नहीं था। बल्कि पिता के प्रेम को पाने के लिए पत्नी से छिपकर पैसे घर भेजना, जरूरत से ज्यादा बचत के लिए झगड़े करना, भाई-बहनों की पक्षधरता में रातों रात पत्नी से लड़ना। उस भाई की बीवी के लिए अपना पुस्तैनी घर छोड़ देना,जिसने कभी बड़े भाई यानी मेरा मान नहीं दिया था। मेरे लिए पिता से झगड़ते हुए अपना घर छोड़ना एक प्रकार का क्रोध का इज़हार था लेकिन पत्नी के दिल पर इस घटना का प्रभाव मर्मान्तक पड़ा।
वह इसे जातीय अपमान मान बैठी। वह चाहती थी, लड़ो-झगड़ो कुछ भी लेकिन घर न छोड़ो। भाई-भाई अलग मत हो। मत भेद को मन भेद मत बनने दो। मैंने उसकी एक बात नहीं मानी। उसअलगाव और बिछड़न के बाद जब पता चला कि पिता उसी शहर में अपने भाई के घर रह रहे हैं। तो एक बार फिर पिता के सम्मान के लिए तड़प उठा। मैंने उन्हें मानकर घर ले आने के लिए अपनी पत्नी से कहा। उसने टालमटोल की लेकिन मेरी इज्ज़त की परवाह ने उसे वह सब करने पर मजबूर किया जो मैं चाहता था। पत्नी मेरे पिता को मनाकर घर ले आयी। बच्चों के साथ उनकी तीमारदारी में जुटी रही। पिता तंदुरुस्त होने लगे। मुझे बड़ा सुख मिला। मगर एक दिन किसी तिनका सी बात पर पिता और मैं फिर लड़ पड़े। और बात यहां तक जा पहुंची कि अबके पिता ने मेरा घर छोड़ दिया। बस तब से मेरी पत्नी ने मेरे परिवार से हाथ जोड़ लिए। एक बार फिर से मैं अपनी पत्नी से अपने स्वाभिमान का बलिदान चाह रहा था। आँखों पर कोहनी टिकाये मैं सोच रहा था।
“सोचो, चाहे लड़ो बाद में…..पहले फोन उठा लो? उतनी देर से वायब्रेट हो रहा है।” पत्नी ने मुझे
झकझोर दिया।“तुम ही उठा लेती।” कहते हुए मैंने फोन उठा लिया।“कपिल तेरे पिता नहीं रहे। हो सके तो अभी, जल्दी चले आओ।” कहने वाले ने बोलकर फोन रख दिया।
मेरा पेट पानी हो गया। मैं दौड़कर पहले फारिग हुआ। बच्चों को उठाया। बात समझ नहीं आ रही थी। करूँ क्या? कैसे अभी गाँव के लिए निकलूँ?
कुछ देर कुछ भी नहीं सूझा। न बस और न ट्रेन की व्यवस्था हो सकती थी। “अब क्या हो?”
मैं घबराया हुए चहलकदमी करने लगा। पत्नी को एक उपाय सूझा। उसने बच्चों के स्कूल वैनवाले भैया का नम्बर दिया। मैंने फोन लगाया। रात के दो बज रहे थे। फोन नहीं उठा। ओला-ऊबर तलाशने लगा। डेस्टिनेशन देखकर सारे केंसिल कर रहे थे। पत्नी बार-बार वैनवाले को फोन लगाती रही। अंत में उसने उठा लिया। पत्नी ने अपनी बात बताई तो वह तैयार हो गया।
”मैडम आधा घंटे की मोहलत दो, आता हूँ।” पत्नी ने मुझे बताया।
बच्चों को उठाकर मैं गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगा। अपने प्रति पत्नी के हज़ारों समर्पण, उसकी मुखरित एक नकार ने धो डाले थे। मेरा मन पत्नी के साथ हाथपाई करने, जबरियाने को चाह रहा था।उसी वक्त गाँव का लंगड़ा व्यक्ति याद आने लगा। जिस तरह लंगड़ा व्यक्ति जीवन के समक्ष शरीर की सत्यता सिद्ध न कर सका था और अपंग मानसिकता के हवाले होता चला गया। उसी तरह अपनों से हारा मैं, अपनी कुंठाओं, हताशाओं और संत्रासों का जिम्मेदार पत्नी को समझ रहा था।
अपनों के द्वारा मिले अपमानित जीवन पर मैं पत्नी की सदेच्छा चाह रहा था। सद्भावना चाह रहा था।ये भूल रहा था कि अधिकार उस पर जताया जाता है जो हमारे उपकारों में दबा हो। परिवार केनज़रिए से पत्नी के हित में कुछ करना तो दूर, सोचना भी मैंने गुनाह समझा था। मेरे पिता जिस तरह पुरुषोचित अधिकारों में झूमते रहे, मैं भी उनके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करता रहा। और उन जैसा ही बन गया।
गाड़ी आकर दरवाज़े पर खड़ी हो गयी। रात अपने गुरूर में थी। मुझे डरावनी और विकराल लग रही थी। पिता की मृत्यु का सन्नाटा मेरे भीतर बज रहा था। बच्चों के साथ गाड़ी में बैठ गया। दुःख और बेबसी के आँसू पीते-पीते मेरा गला छिल आया था। दुःख का मारा–आधा-पौना पत्नी के पास छूट गया और जो बचा–पिता की मातमपुर्सी के लिए रवाना हो गया। अँधेरी रात को चीरते हुई गाड़ी जल्दी ही हाइवे पर आ गयी। मेरी आत्मग्लानि यथावत मुझे कुरेदती रही। कैसा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सफ़र था..? मैं पिता की ओर बढ़ता जा रहा था और पिता अंतहीन सफ़र की ओर…। बच्चे आधी नींद में थे, बैठते ही सो गए। अपने दुःख से उबरने के लिए मैं भी सोने का प्रयास करने लगा। गाड़ी अपनी रफ़्तार में दौड़ती रही। अचानक ड्राइवर ने कहा–घाटमपुर आने वाला है साहब। हड़बड़ा कर खिड़की से देखा तो सच में क्षितिज से उतर कर उजाला धरती को थपकने लगा था। मैंने बच्चों को उठा लिया। थोड़ी देर चलकर गाँव के बाहर सड़क पर गाड़ी ने छोड़ दिया।
बच्चों को साथ लिए मैं जा वहीं रहा था, जहाँ सौकड़ों बार आया-गया लेकिन उस दिन पाँव आगे बढ़ नहीं रहे थे। मैं उस घर की ओर मुखातिब था जो जितना पिता का था, उतना ही मेरा। लेकिन कभी अपने भर जगह ले न सका था। पहली बार पत्नी का साथ न होना, मुझे कचोट रहा था। पिता के न रहने का दुःख साथ-साथ चल रहा था। उसी का हाथ पकड़े-पकड़े जब लोगों के बीच पहुँचा तो मैंने अपनों को, अपनी ओर देखते हुए नहीं,घूरते हुए पाया।
मैं उस घर के आगे खड़ा था, जिसे एक दशक पहले जीवन के सबसे कड़वे अनुभव के साथ त्याग चुका था। मुख्यद्वार के आगे रखी पिता की माटी के चारों ओर बैठे लोग, उन्हें अपना अंतिम स्पर्श दे रहे थे। लोगों के हुजूम के बीच अपने को बचाता-खर्चता बड़ी जद्दोजहद के साथ खुद से जुड़ने का प्रयास करता जा रहा था। पिता की अनुपस्थिति मन के वातावरण में एक गीली लकीर खींच रही थी। मैं धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगा। बढ़ने लगा प्रेम की उस चाहत की ओर जो कभी मिल नहीं सकी और अब कोई आशा भी नहीं थी।
“अरे मोर भैया…रे!” कोई अभी-अभी आया था। पिता को रोकर पुकार रहा था।मैंने पिता को क्यों
नहीं पुकारा..? इस सवाल के साथ मैं जैसे जड़ हो गया। बच्चे चबूतरे के किनारे पर बैठे शून्य नजरों से मुझे ही देख रहे थे। मैं उसी तरह झेंप गया जैसे-बचपन में छोटे भाई-बहनों के सामने पिता मुझे जुतियाने लगते थे, तब झेंप जाता था। तब माँ की पुकार जीने की वजह बन जाती थी। मैं उसी पुकार को अब तलाश रहा था। भूल रहा था, वह पुकार तो पहले ही हवा, पानी, आग, माटी में विलीन हो चुकी है।
मैं पिता से मिल रहा था पर आँसुओं की जगह आंतरिक संवाद में उलझा हुआ। फँसा हुआ। पिता के जिन हाथों को मैं अपने हाथों में लेने को तरस गया था, वे जमीन पर खुले पड़े थे। मैंने पिता के ठंडे-निश्चेष्ट हाथ को अपनी गुनगुनी हथेली में दबा लिया। उनकी हथेली कपास की तरह सफेद और बर्फ की तरह ठंडी हो चुकी थी। अपनी गुनगुनाहट देकर भी गरमी पैदा नहीं हो सकती थी। मुर्दा हथेली में मैं अपने हिस्से की रेखा खोजने की कोशिश करने लगा। रेखाओं के जखीरे में, मेरे हिस्से की एक क्या! आधी रेखा भी नहीं मिली। पिता की जिस तर्जनी को पकड़ने के लिए बचपन में लपकता था और पा नहीं पाता था। अब स्वीकारता में दिख रही थी पर अब मेरी हिम्मत जबाब दे रही थी, उसे थामे रखने में। मेरे हाथ से पिता का हाथ खींच कर ढंक दिया गया।
“मैं कौन हूँ? क्यों आया हूँ यहाँ..? मेरा अस्तित्व इस घटना से क्यों जुड़ा है..?”
अपनों का परायापन देखकर प्रश्न मेरे दिमाग पर हथौड़े की मानिंद चोट कर रहे थे। खाली-खाली मैं भर जाने की कल्पना से सिहर रहा था। किसी की आत्मीयता जो पिता की रिक्तता को मिटा सके, की चाहत लिए लोगों की आँखों में आँखें डाल, उनका मन टटोल रहा था मगर अपने कहे जाने वाले लोग काट खाने की दृष्टि से मुझे देख रहे थे।
वक्त के बेरुखे रवैए पर मैं पत्नी के बारे में सोचते हुए उदास होता जा रहा था। और मन ही मन विनती कर रहा था कि कोई उसके बारे में कुछ भी पूछे नहीं। दर्द का विरेचन टकराहट के साथ जारी था और लोगों में कानाफूसियाँ भी…। मुझे सभी की आँखों में पत्नी के प्रति विद्रोह और नफ़रत दिख रही थी।
कोई फुसफुसाता हुआ मेरी ओर देख लेता तो मुझे मेरी मर्दानगी पर शक होने लगता। मैं कैसा बेटा निकला..? चाहता तो बाल पकड़े घसीटते हुए पत्नी को यहाँ ला सकता था, पर नहीं ला सका। मुझे पत्नी के होने पर अब घृणा होने लगी थी। जबकि वह मेरे दो संभ्रांत बच्चों की माँ थी। पिता के अंतिम संस्कार के लिए चर्चाओं के साथ सामान जुटाया जा रहा था। मैं चाह रहा था कि मुझे भी कोई उसी लेन-देन में शामिल कर ले लेकिन लोग लगातार चल रहे थे और मैं एक जगह ठहरा था। मैं अपने और पिता के बीच बने बड़े से दायरे में एक नामुराद कंकड़ की तरह लुढ़क रहा था। नीरव वातावरण में किसी ने मुझे पुकारा।
“सुनो कपिल,तुम्हारी पत्नी कहाँ है?” पिता के मँझले बेटे यानी मुझसे छोटे भाई ने रहस्यात्मक लहज़े से पूछा था।
“वह नहीं आई।” मैं बोला।
“क्यों ?” वह बोला।
“ये उसी से पूछना पड़ेगा।” मैं बोला।
“फिर ठीक है। तुम बाबूजी का अंतिम संस्कार नहीं कर सकते?”
“क्यों ?”
“जब तुम्हारी पत्नी नहीं आई तो अंतेष्टि करने वाले को खाना कौन बनाएगा ?” निर्णायक ध्वनि में वह बोला और चला गया।
क्यों? जिसकी बीवी मर जाती है, वह माँ-बाप का अंतिम संस्कार नहीं करता?
मैंने बोलते हुए मुड़कर देखा, पिता के मँझले बेटे ने यहाँ भी अपना स्वामित्व जता कर मेरा अधिकार छीन लिया था। मैं अपाहिज, सूनी आँखों से जनता जनार्दन की ओर न्याय के लिए ताकता रहा।
क्या बड़े, क्या बूढ़े सभी ने अचानक मातमी हिजाब ओढ़ कर पीठ फेर ली थी। पिता के जनाजे में अब मैं सबसे पीछे था। गाड़ियाँ घाट की ओर बढ़ रही थीं। पिता अपना पसारा छोड़, अनंत यात्रा पर थे। मेरे सवालों के जवाब हमेशा के लिए अनुत्तरित छूट गए थे। मेरे साथ अनबन लिए पिता के यूँ अनंत में जाने का मुझ पर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ा था बल्कि कहूँ तो अन्य लोगों की तुलना में कहीं अधिक और अलग किस्म का भी। पिता के प्रति मेरी तमाम बहसें समाप्त हो चुकी थीं। मेरा सामान्य जीवन जो कभी था ही नहीं, आज नष्ट होने की कगार पर था। पत्नी की वजह से मेरी सामाजिकता दाँव पर लग चुकी थी। मनुष्य और मनुष्य के बीच मेरे सभी रिश्ते खटाई में पड़े दिख रहे थे।
“जो होश-ओ-हवास में रहेगा वह मारा जाएगा। समाज के बीच अपने को जिन्दा रखना है तो बीवियों के पेटीकोटों में घुसना सीखो। उनके बताए रास्तों पर चलो, फरेब करो और अपने लोगों के चहेते बने रहो। पिता के भी। क्योंकि जीवन में इंसाफ़ को ताबीज की तरह बाँधने वाला कुचला जाता रहेगा। सत्य अपनी जगह से हमेशा गिराया जाता रहा है। विध्वंसक ही बुद्धिजीवी कहलायेंगे अब…।”
“ये कौन बोला? क्या मेरे कान बज रहे हैं? क्या मेरी पत्नी अंकिता चिल्ला रही है? किसने कहा ये सब?
क्यों कहा..?
मैंने बेताबी से इधर-उधर देखा। बबूल की डाल जो खाई में झुककर गंगाजल पी रही थी, उसी पर एक चिड़िया बेतहाशा चीख़ रही थी। आवाज़ वहीं से आती हुई सी लगी? मैं निढाल होकर गंगा की ऊबड़ खाबड़ रेतीली धरती पर पसर गया। लोग पिता की चिता की ओर कतराकर निकलते जा रहे थे। पिता का अंतिम बिछौना बनता रहा। गंगा का निर्मल किनारा दिग्विजय का शंखनाद कर रहे थे। जीवन और मृत्यु के साक्षी बन रहे थे।
“मुझे क्या होता जा रहा है? बच्चों को देख रहा हूँ लेकिन मेरे भीतर कुछ डोलता नहीं। धूप जलन नहीं दे रही है। हवा ठंडक नहीं….। क्या मुझमें प्रेम समाप्ति की ओर है…? क्या मैं किसी से भी प्रेम नहीं कर पाऊँगा..? अपने बच्चों से भी नहीं..? खुद से भी नहीं…?”
मैं आँखों से चिल्ला रहा था। पर अपनों के द्वारा सुना नहीं जा रहा था। सब अपने अपने समूहों में बोल रहे थे। और मैं बिच्छू का-सा डंक खाया तड़प रहा था। भाई भतीजों की नजरों में मैं अजनबी बन चुका था।
“जीवन की इस अबूझी कटुता में आख़िर मेरा कुसूर क्या था? क्या कसूर था, मेरे परिवार का…? पत्नी और बच्चों का?”
मैंने आसमान की ओर प्रश्नाकुलता से देखा। मेरी पीड़ा में वह भी दग्ध दिखा। लगा मेरा दुःख उसकी आँखों से झर रहा है। मैं हमेशा की तरह निशब्द और गतिहीन होकर दृश्य में जीवन टटोलने का एक अंतिम प्रयास करने लगा था। हाथों को ऐसे उठा दिया, मानो कोई पकड़कर सहारा देगा और गले से लगा लेगा। पर वहाँ कोई नहीं था। पिता की देह से लिपटी आग की लपटें धू धू कर ऊँची और ऊँची होकर लपक रही थीं। पिता धुआँ की शक्ल में आसमानी होते जा रहे थे। मैंने हाथों से अपना चेहरा ढँक लिया। अचानक मेरे नासापुटों में सनसनी-सी दौड़ गई।
“ये किसकी गंध है और कहाँ से आ रही है?”
मैंने चारों ओर देखा। हाथों को उठाकर अपनी बगलें सूँघी। कुर्ता सूँघा। जब कुछ समझ नहीं आया तो हाथों को रेत से रगड़ रगड़ माँज कर घास से पौंछ कर सूँघा। गंध मेरे हाथों से ही आ रही थी। ये तो पिता की देह-गंध है।मैं पागलों की तरह पिता की ओर लौटने लगा। उनसे जुड़ी हर स्मृति, हर दृश्य में पिता की गंध समाई हुई महसूस होने लगी। मेरे भीतर चटक कर कुछ बिखरने लगा। मैं हल्का होने लगा। गाढ़े दुख के बीच पिता के अपनत्व का गहरा आवेग मुझे झुलाने लगा। मन की पीड़ा पिघलने लगी। समय का वह रचाव बहुत अलग था। अनजाना भी। उसी अनजानेपन के आलोक में मैंने अपने बच्चों की ओर देखा। वे दूर मेरे दुख की सीमा के बाहर मुरझाए-से खड़े थे। प्यास और भूख से उनके चेहरे कांतिहीन लग रहे थे। पास बुलाकर मैंने बच्चों को सीने से लगा लिया।
ईमेल : kalpanamanorama@gmail.com