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नई दिल्ली।(रमेश तिवारी ‘रिपु’)। बस्तर फिर खून से तर। रेड वाॅर का यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा? इसका जवाब न तो गृहमंत्री के पास है। और नही छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के पास। बस्तर चार दशक से चरम वामपंथी हिंसा का शिकार बना हुआ है। साथ न देने वाले आदिवासियों को मुखबिरी का आरोप लगाकर नक्सली मौत के घाट उतार देते हैं। ‘‘सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है’’बात करने वाले जल,जंगल और जमीन की लड़ाई के बहाने आदिवासियों को क्रांति का सब्ज बाग दिखाते-दिखाते बस्तर की पीठ पर लिखते आ रहे हैं खून।
कांग्रेस किस क्रांति की समर्थक
हर नक्सली हमले के बाद जवान फिर उत्साह से लाल गलियारे में कूद पड़ते हैं।नक्सली मारे जाते हैं तो सरकार अपनी पीठ थपथपाती है। लेकिन क्यों? नक्सली मरें या फिर जवान। मौत दोनों तरफ से न हो इसकी पहल सरकार क्यों नहीं करती। राजीव गांधी भवन में कांग्रेस नेता राजबब्बर ने कहा था कि नक्सलियों को रोके नहीं वो क्रांति करने निकले हैं। सवाल यह है कि कांग्रेस किस क्रांति का समर्थन करती है? इससे इंकार नहीं है कि कोई भी सरकार नक्सलवाद खत्म नहीं कर सकती। जब तक देश में भूखमरी,गरीबी और अशिक्षा रहेगी नक्सलवाद लोकतंत्र की शिराओं में लहू की तरह बहता रहेगा। बस्तर में आदिवासी भाई ही बस्तर फाइटर्स में भर्ती में होकर अपने ही भाई के सीने में गोली दाग रहा है। सरकार केा इस दिशा में सोचना चाहिए कि आखिर आदिवासी नक्सली क्यों बन जाना पसंद करते हैं। आखिर वो कौन सी वजह है जिसकी वजह से पिछले बारह साल में बारह सौ जवानों की शहादत के बाद भी सरकार के माथे पर अपनी नाकामी का पसीना तक नहीं आया। यह कह देना काफी नहीं है कि नक्सलवाद खत्म हो कर रहेगा। आखिर कितने जवानों की शहादत के बाद नक्सलवाद खत्म होगा। छत्तीसगढ़ में एक तरीके से गृहयुद्ध चल रहा है सरकार और माओवादियों के बीच।
राज्य में कौन सा गलियारा हो
कायदे से सरकार को चाहिए कि वो नक्सलियों के सरेंडर की पाॅलिसी में तब्दीली करे। क्यों कि इनामी नक्सलियों को सरेंडर करने पर पुलिस उन्हें हीरो की तरह पेश करती है। यही वजह है कि बेरोजगार युवकों को माओवादियों के प्रति घिन नहीं आतीं। चारु मजूमदार की मौत के बाद भी लोकतांत्रिक सत्ता पर विश्वास नहीं करने वाले मान लिए हैं,कि भारत में लम्बे समय तक युद्ध करने से सत्ता बंदूक की गोली से ही निकलेगी। इसी वजह से आज देश के अंदर चार गलियारा हैं। नक्सलियों का लाल गलियारा, उद्योगपतियों का ठेका गलियारा, सत्ता का गलियारा और चैथा है आदिवासियों का विरोध गलियारा। सरकार को तय करना होगा कि देश में, राज्य में कौन सा गलियारा होना चाहिए।
कब तक रेड वाॅर
प्रवीर चंद भंजदेव की राजनीति हत्या के बाद से आज तक बस्तर की पीठ से खून रिस रहा है।सीआरपीएफ की गोली से या फिर नक्सलियों की गोली से बस्तर की पीठ छलनी होता आ रहा है। यानी चरम वामपंथी हिंसा का शिकार बस्तर का आदिवासी हो रहा है। यहां का आदिवासी पुलिस और नक्सली दोनों के बीच गेहूं की तरह पिस रहा है। जंगल की सरकार कहती है आदिवासी पुलिस का मुखबिर है और पुलिस कहती है माओवादी का समर्थक है या फिर मुखबिर है। आखिर ऐसा क्यों? जान तो दोनों तरफ से आदिवासी की ही जा रही है। दरअसल उधार के सूत्र से क्रांति का भरोसा दिलाने वाले जल जंगल और जमीन की लड़ाई के बाहने आदिवासियों को क्रांति का सब्ज बाग दिखाते दिखाते बस्तर की पीठ पर लिखते आ रहे हैं ‘खून’। सरकार को अपने राजनीति बयान की जगह आगे आना होगा, ताकि रेड वाॅर खत्म हो।