
Amaanat
भाई बहन का रिश्ता बेहद खास होता है। इस रिश्ते पर बेहद बारीकी से लिखी हैं कहानी लकी राजीव ने। यकीनन इसे पढ़ते वक्त आप के दोनों आंखों के कोर गीले हो जाएंगे बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है। बारीक रिश्ते की बारीक कहानी अमानत।
मैं उनको भाई साहब कहती थी… लेकिन मेरी बाकी सहेलियाँ अपने बड़े भाई को भइया कहती थीं! बात बस कुछ अक्षरों के हेर फेर की ही नहीं थी,इससे ज़्यादा भी कुछ थी। जहाँ मेरी सहेलियों के भाई उनसे कुछ साल बड़े होकर,
हँसी-मज़ाक के सहभागी बन जाते थे, वहीं भाई साहब और मेरे बीच में पूरे पन्द्रह सालों का अंतर एक गहरी खाई खींच चुका था..रही सही कसर हमारे घर के माहौल ने पूरी कर रखी थी। हमारे यहाँ हर बात के नियम तय थे, मम्मी की बजाय माँ बोला जाएगा और पापा को पिताजी..मम्मी, पापा बोलने पर दादी संस्कारों की दुहाई देतीं,टी वी को कोसतीं और दिन भर क्लेश करतीं। कुछ नियम और भी थे… भाई साहब शहर में पढ़ते थे, जब छुट्टियों में घर आते तो दादी आँखें दिखाकर कहतीं,”गुड़िया!नमस्ते करो भाई साहब से” ,
और जब कभी मेरा जी करता कि मैं भाई साहब को अपनी ड्राईंग बुक दिखाऊँ तो दादी मेरे हाथ से ड्राईंग बुक झपटकर डपट देतीं,
“घोड़ी जैसी हो गई,ना अकल नहीं आई बचपना गया..भाग यहाँ से”
इस तरह की हर एक बीतती घटना के साथ, मेरे मन के सवाल भी बढ़ते गए और हम भाई-बहन के बीच की दूरी भी! भाई साहब मेरे लिए माँ- पिताजी के जैसे नहीं लेकिन उनके ठीक नीचे वाले पायदान पर ही थे…पिताजी जैसे ही गंभीर, माँ की तरह अल्पभाषी, बस जितना बोलने से काम चल जाए उतना ही बोलना पसंद था उन्हें, बस भाई-साहब को उस दिन ही चिल्लाते सुना था,
“आपसे पूछ ही रहा हू़ँ पिताजी..शादी करके तो नहीं ले आया हूँ घर”
पिताजी ने दहाड़कर जवाब दिया था,”ले आओ ना शादी करके उस दूसरी जात की लड़की को..फिर मेरी तेरहवीं में ब्राह्मणों को भोजन करा देना”
भाई-साहब ने टूटे स्वर में कहा था,” आप चलाओ अपनी .. मैं भी कसम खा रहा हूँ, कहीं और शादी नहीं करूँगा”
दादी के साथ चारपाई पर दुबककर लेटी हुई बच्ची यानी मैं,उस उम्र में इन बातों के अर्थ तक नहीं पहुँच पायी थी.. लेकिन जैसे जैसे दुनियादारी की सीढ़ियाँ चढ़ीं, इन तीन पंक्तियों के मायने पूरी तरह समझ में आ गए! एक दर्द की लहर दिल में उठी थी जो भाई साहब के दर्द से जाकर मिल गई थी..जाने कितने व्रत अपनी उस भाभी के लिए कर दिए,जिसका मुझे नाम तक नहीं पता था। दिन-रात एक ही बात मन में चलती कि भाई-साहब जिनसे शादी करना चाहते हैं, उन्हीं से हो जाए। अपनी कल्पना में मुझे पीली साड़ी पहने,महावर लगाए भाभी घर में आते दिखतीं और भाई-साहब हँसते हुए पूछते,
“गुड़िया, नेग माँग लो”
मैं सकुचाते हुए कह देती,
“मैं भइया बोला करूँ आपको?”
इसी सपने के पूरा होने के लिए, हाथ जोड़कर मनौती माँगती रहती.. लेकिन ये भ्रम भी एक दिन टूट गया! पिताजी फुसफुसाते हुए माँ से कह रहे थे,
“खुशखबरी है! बवाल टला..हो गई उस लड़की की शादी कहीं और..अब अनूप को समझाओ और बहू लाओ!बुढ़ा रहे हैं देवदास बने बने”
पिताजी बता रहे थे कि भाई साहब के दोस्त ने ये खबर पिताजी को सुनाई थी। जिस खबर को वो खुशखबरी कहकर बता रहे थे, वो सुनते ही मैं टूट गई थी,धक्का सा लगा था लेकिन अगले दिन ग्यारह नारियल और पूजा की थाली लिए, माँ को मंदिर जाते देख मुझे दूसरा धक्का लगा था.. इसका मतलब मेरी और माँ की मनौतियाँ टकरा रही थीं, माँ जीत गई थी, खुश थीं। मैं हार गई थी,
मेरी भाभी पीली साड़ी पहने किसी और घर की तरफ़ मुड़ गई थीं!
भाई-साहब की शहर में ही नौकरी लग गई थी। “नौकरी में कम छुट्टियाँ मिलती हैं” ऐसा बताकर, धीरे धीरे उन्होंने घर आना लगभग बंद कर दिया था। घर से अलग हुए बच्चे हादसों में ही घर आते हैं, ऐसा मेरा मानना था..भाई साहब भी दादी के गुज़र जाने पर ही आए थे। चेहरे पर उदासी फैली हुई, हल्की हल्की दाढ़ी बढ़ी हुई..खाना बस चुग लेते थे, ना किसी से बात ना बहस! मुझसे एक ही बात पूछी,
“पढ़ाई ठीक चल रही है गुड़िया? कुछ रुपए पैसे की ज़रूरत हो तो इन लोगों से ना माँगना, मुझसे बता देना”
मैंने ‘हाँ’ में गर्दन हिलाकर जवाब दे दिया था, आँखें भर आईं थीं,छलकी नहीं थीं। बार बार मन “इन लोगों” पर जाकर अटक जाता था,कितने पराए हो गए थे हम सब आपस में एक-दूसरे के लिए! पिताजी और माँ ने ना सिर्फ वो रिश्ता ठुकराया था बल्कि सालों तक भाई साहब को उस बात के लिए शर्मिंदा किया था,जब देखो तब वही ताना सुनाया जाता था,
“तुमसे क्या उम्मीद करेंगे? तुम तो धब्बा हो हमारे घर पर..सब पूछते हैं क्या कमी है जो इतना बड़ा लड़का कुँवारा बैठा है”
पिताजी फोन पर ऐसी जली-कटी बातें सुनाते और माँ पीछे से कुछ और जोड़कर उस आग में ईंधन डालती रहतीं..और एक दिन ये आग प्रचंड रूप ले चुकी थी! भाई-साहब ने एक और रिश्ते के लिए मना कर दिया था, पिताजी ने फ़ोन रखते ही, स्कूटर को पैर मारकर गिरा उठाकर दिया था।
“नहीं चाहिए उसके पैसे का एक भी सामान इस घर में..कान खोलकर सुन लो, कोई उससे संबंध नहीं रखेगा आज से”
पिताजी गुस्से से लाल हुए जा रहे थे और माँ हमेशा की तरह भुनभुनाती हुई “उस लड़की ने कोई टोटका किया है”,कहकर उनका गुस्सा और बढ़ाती जा रही थीं। पिताजी फिर गरजे,
“फेंक दो उसका सब सामान बाहर..एक चीज़ ना दिखे हमें, खैर मैं ही जला दूंगा कल पूरा कबाड़”
पिताजी इस संकल्प के साथ निश्चिंत होकर सो गए थे लेकिन मेरी आँखों से नींद गायब थी। रात को जब माँ के खर्राटे उनकी गहरी नींद की पुष्टि करने लगे, मैंने दबे पाँव भाई साहब के कमरे में जाकर उनकी अलमारी खोल ली थी। इस अलमारी की एक चाभी भाई साहब के पास थी और दूसरी मेरे पास..ये बात वो भी नहीं जानते थे। उनके कपड़ों में से एक दो कपड़े लिए, उनका अलबम उठाया और अलमारी बंद करने जा ही रही थी कि कोने से झाँकती एक बकसिया पर नज़र टिक गई! बड़ी हैरत हुई, सालों पुराना एक छोटा सा बक्सा,जिसके आकार के कारण उसे बकसिया कहा जाने लगा था, वो यहाँ क्या कर रहा था? संभवतः वो भाई साहब को बहुत प्रिय रहा होगा,तभी उन्होंने सँभालकर रखा होगा..समय कम था, लगे हाथ वो बकसिया भी लपक ली और अलमारी में ताला लगाकर कमरे का दरवाज़ा उसी तरह उड़का कर मैं लौट आई!
अगले कुछ दिनों में भाई साहब के कमरे का सामान बड़ी उदारता से बँटता चला गया..उनके पुराने पैजामे माली का लड़का बड़ी हसरत से देखता हुआ अपने झोले में भर ले गया, साइकिल पड़ोस के मुन्नू के हाथ लग गई, कुछ किताबें थीं वो मैंने रखनी चाहीं लेकिन बाबूजी ने रद्दी वाले के आते ही जैसे ही आवाज़ दी,
“किताबें ले आओ सारी, जो उसके कमरे से निकली थीं”
मैं तुरंत वो बंडल आँगन की सीढ़ियों पर रख आई थी…भाई साहब का कमरा एकदम खाली खाली लगता था, बस वो लकड़ी वाली अलमारी और एक पलंग। बाबूजी की नज़रों में अलमारी का वो ताला खटकता रहा, पहले तो चाभी ढुँढ़ाई मची रही फिर एक ईंट ने उस ताले को उसकी हैसियत दिखा दी। अलमारी में ऐसा कुछ खास था नहीं.. कुछ किताबें ही निकलीं और कुछ पुराने डाक टिकट, वो सारा सामान भी छत पर कबाड़ के साथ सड़ने के लिए छोड़ दिया गया।
घर का माहौल हर बीतते पर के साथ दमघोंटू होता जा रहा था, मैं अपनी किताबों में सिर दिए रहती या रसोईं में जुटी रहती..इसके अलावा तीसरी बात से मेरा कोई ताल्लुक नहीं था। कभी जी में आता, किसी सहेली के यहाँ जाकर चुपचाप भाई साहब को फोन लगाऊँ, बस उनकी आवाज़ सुनकर रख दूँ, लेकिन घर में घुसी डरपोक लड़कियाँ इस तरह की बातें सोचने का ही सामर्थ्य रखती हैं…करने का नहीं! कभी कभी लगता, भाई साहब भी तो फ़ोन उठाकर घर का नंबर देखते होंगे,क्या पता मिलाते भी हों.. लेकिन यहाँ तो कोई उनसे बात ही करने को तब तक तैयार नहीं था,जब तक वो शादी करने के लिए तैयार ना हो जाएँ। ना वो तैयार हुए,ना ये दूरी मिटी…सब ठहरा सा रहा,बस वक्त चलता रहा,अपनी रफ्तार से।
“मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ” मैंने बी ए करने के बाद झिझकते हुए अपनी बात रखी, माँ ने चावल बीनते हुए जवाब दिया,
“हाँ तो पढ़ो..कौन मना कर रहा”
“अपने यहाँ एम ए कहाँ है किसी कॉलेज में.. मैं प्राइवेट नहीं पढ़ूँगी” अपनी मुट्ठी में चुन्नी का कोना पकड़े हुए मैं एकदम से इतना बोल गई। माँ ने पूरी ताकत से चावल की परात चबूतरे पर पटक दी।
“तुम शहर जाकर कॉलेज से एम ए करोगी? दिमाग ठीक है? दो-चार जगह बात चल रही है..इस जाड़े तक तुम्हें विदा कर देंगे, ये बात सुन लो और दिमाग में बैठा लो”
चबूतरे पर फैले चावल के दाने मेरे सपनों के टूटे हुए टुकड़े जैसे ही दिख रहे थे! धीरे-धीरे उनको बटोरती हुई मैं सुबकती जा रही थी..कितने आराम से लड़कियाँ हर बात अपनी माँ से कह लेती हैं,लड़ लेती हैं,दुलरा लेती हैं, यहाँ तो विरोधी खेमे में बँटा हुआ परिवार था। एक तरफ़ माँ-पिताजी, दूसरी ओर बच्चे! पता नहीं कितनी देर वहीं बैठी मैं सुबकती रही, फिर अपने कमरे में जाकर भाई साहब के ख़ज़ाने का वो हिस्सा बड़ी हसरत से देखती रही,जो मेरी अलमारी में छुपा हुआ बैठा था; एल्बम और बकसिया! एल्बम में ज़्यादातर उनके स्कूल और कॉलेज की फोटो थीं, एक तस्वीर में दादी उनको टीका कर रही थीं और भाई साहब मुझे गोदी में लिए बैठे थे। पता नहीं कितनी देर मैं उस तस्वीर को देखती रही..फिर माँ के आने की आहट सुनकर हड़बड़ाकर एल्बम कपड़ों के अंदर दबा दिया।
“बगल में बुलउआ है, जा रहे हैं.. थोड़ी देर में आ जाएँगे”
बाबूजी घर में थे नहीं, माँ के जाते ही दिमाग़ में एक हलचल मचने लगी थी..घर में अकेले रहने का मौका महीनों में एक बार आता था, बकसिया का राज़ मुझे बेचैन किए हुआ था।
छोटे से ताले को घुमाते ही भाई साहब की वो दुनिया जो अब तक मुझसे छुपी हुई थी, भड़ाक से सामने आ गई थी..
उस बकसिया में प्यार की खुशबू से भीगी, अनगिनत चिट्ठियाँ अपने लिफाफों में कैद थीं।
मैंने फैली हुई आँखों से एक एक चिट्ठी पढ़नी शुरू की, वो चिट्ठियाँ उस इमारत की नींव थीं..वो इमारत तो कभी पूरी नहीं हो सकी!
“अनूप,
मैं नाराज़ नहीं हूँ,बस क्लास में बात नहीं करती..बाकी लोग बातें बनाने लगे हैं। तुम ऐसा सड़ा सा मुँह बनाकर मत रहा करो ।
सिर्फ तुम्हारी
पूजा”
पहली चिट्ठी पढ़ते ही हाथ काँपने लगे थे, दूसरी चिट्ठी मेरे पढ़े जाने के इंतज़ार में थी,
“अनूप,
ये भी कोई बात हुई? तुम्हारे बर्थडे के लिए ब्लू शर्ट खरीदी थी, तुमने पहनी ही नहीं..सफेद कुर्ते में चले आए हीरो बने हुए।
वैसे सही बताऊँ..एकदम दूल्हा लग रहे थे, मन किया आज ही शादी कर लूँ, बस सबके सामने कह नहीं पायी..
सिर्फ तुम्हारी
पूजा”
पढ़ते हुए मेरी आँखें धुंधलाने लगी थीं,एकाध आँसू गाल पर भी आ चुका था। ये आधी-अधूरी प्रेम कहानी, जो मुझसे पढ़ी भी नहीं जा रही थी,दो लोग ये कहानी जी चुके थे। बहुत हिम्मत करके मैंने एक और चिट्ठी उठाई,
“अनूप,
कितने आराम से तुमने लिख दिया कि बाबूजी नहीं मान रहे… मेरा हाथ पकड़े जब घंटों बैठे रहते थे, तब उनसे पूछकर बैठते थे क्या? तुम तो कहीं और शादी करके बड़े आराम से परिवार बसा लोगे, मुझे पता है.. मुश्किल तो मेरे लिए होगी, क्योंकि मेरे लिए ये सब टाईम पास नहीं था!
पूजा”
इस चिट्ठी में पूजा के पहले ‘ सिर्फ तुम्हारी’ नहीं लिखा हुआ था..नाम अधूरा सा लग रहा था और इस अधूरे नाम को पढ़कर, पढ़ने वाला भी उतना ही अधूरा हो गया होगा। मुझे इस समय तकलीफ़ हो रही थी, ज़्यादा .. बहुत ज़्यादा..चिल्ला चिल्लाकर रोने का मन कर रहा था..
मैं उनका दर्द जी रही थी। भाई साहब कुछ सालों पहले एक ढहती हुई दीवार पकड़े “बचाओ बचाओ “ चिल्ला रहे थे लेकिन बचाने कोई नहीं आया था, आज मैं भी उसी तरह की दीवार के पास खड़ी थी..असहाय, बेसहारा।
“जाड़े तक तुम्हें विदा कर देंगे, ये बात सुन लो और दिमाग में बैठा लो”
माँ की आवाज़ कानों में गूँज रही थी, इससे पहले की वो दीवार मुझे अपने साथ गिरा ले जाती, मुझे अपने बगल में हाथ बढ़ाए भाई साहब दिखने लगे थे.. कौन सी हिम्मत मेरे अंदर अंगड़ाई ले रही थी, मुझे खुद नहीं पता। फटाफट बकसिया छुपाकर छत पर गई, बगल वाली सहेली से उसका फ़ोन लिया,भाई साहब का नंबर मिलाया और सकुचाते झिझकते, टूटे हुए शब्दों में ही सही अपनी आगे पढ़ने की इच्छा और माँ की बात,सब बताती चली गई। जीवन में पहली बार इतनी सारी बातें मैंने उनसे कही थीं, वो ध्यान से सुनते रहे..बीच बीच में ‘हूँ हूँ’ करते और शांत हो जाते!
मुझे नहीं पता था कि वो माँ को फोन करके समझाएँगे या पिताजी को, बस धुकधुकी लगी थी कि उसके बाद क्या होगा..
“भाई साहब, आप किसी को बताइएगा नहीं कि मेरा फोन आया था”
मैंने फोन रखते समय धीरे से कहा, इसका जवाब भी बस “हूँ” आया और फोन कट गया।
पूरी शाम बीत गई… माँ बुलउए से वापस आ गईं और पिताजी काम से, लेकिन पिताजी के फोन की वो घंटी नहीं बजी,जिसका मुझे इंतज़ार था। मन एक पल मायूस होता, दूसरे पल दिलासा देता,”हो सकता है कुछ काम में फँसे हों, सुबह ज़रूर करेंगे फोन”
लुढ़कती-सँभलती मैं उस रात बेचैन ही सोयी, सुबह आँख खुली तो लगा सपना देख रही थी..भाई साहब घर के आँगन में बैठे हुए थे। एक बार फिर, बहस पूरे ज़ोर पर थी लेकिन इस बार मुद्दा भाई साहब का अंतर्जातीय विवाह नहीं, मेरी आगे की पढ़ाई थी.. पिताजी फिर तमतमाए,
“हमारी औलादों को आदत है दिमाग़ ख़राब करने की..हम नहीं पढ़ाएंगे बाहर भेजकर,साफ कह दिया”
भाई साहब ने तमाम तर्कों से समझाने के बाद उसी लहजे में जवाब भी दे दिया था,
“आपकी आदत है, औलादों के विरुद्ध जाने की। मैं पढ़ाऊँगा गुड़िया को आगे..साफ कह दिया”
दो दिनों तक चली उठा-पटक के बाद फैसला हमारे पक्ष में ही हुआ था। मेरे साथ की और लड़कियाँ भी वहाँ पढ़ने जा रही थीं,ये बात भी मेरे पलड़े को भारी कर रही थी। आनन फानन सारी तैयारियाँ हुईं, शहर जाने से एक रात पहले मैंने भाई साहब के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया..वो भी रात वाली ट्रेन से निकलने की तैयारी कर रहे थे।
“क्या हुआ? कोई दिक्कत? मैं चलूँ छोड़ने?” भाई साहब ने बैग में कपड़े रखते हुए संभावित प्रश्न पूछ डाले, मैंने ना में सिर हिलाया!
“पिताजी छोड़ आएँगे, सब कुछ खुद देख आएँगे तो उन्हें
तसल्ली रहेगी” मैंने धीरे से जवाब दिया।
“बताओ गुड़िया..क्या बात है?” वो परेशान हो गए, मैंने कमरे के दरवाज़े से बाहर झाँककर देखा, कोई था नहीं आस-पास…अपनी चुन्नी में लपेटा एक बंडल निकालकर उनकी ओर बढ़ा दिया,
“ये..आपका सामान रखा था इस अलमारी में”
भाई साहब ने सवालिया निगाहों से मुझे देखते हुए वो बंडल थामा, पल भर के भीतर उनके चेहरे पर उदासी की कई परतें खुल गई थीं।
“ये सब तुम्हें कहाँ मिला गुड़िया? अलमारी तो पूरी खाली कर दी गई है” आँसू रोकते हुए, चेहरे के भाव छुपाते हुए उन्होंने पूछा, मैं गर्दन नीचे करके ज़मीन देख रही थी..जिस बड़े भाई से झिझक का रिश्ता रहा हो, उससे उसके प्रेम पत्रों की बात करना सहज नहीं था।
“मैंने चुपचाप यहाँ से हटाकर अपने पास रख लिए थे” बड़ी हिम्मत जुटाकर मैंने जवाब दिया…भाई साहब के लिए अब रुकना मुश्किल हो रहा था, उन लिफाफों को हाथ में लिए हुए शायद वो पुराने वक्त में लौटने लगे थे.. मैं वापस जाने को मुड़ी,तभी एक भीगी हुई आवाज़ आई,
“कमरा खाली देखा, अलमारी खाली देखी तो मुझे लगा था कि ये भी नहीं बचे”
उनका “भी” मुझे भी रुला गया था, दुपट्टा मुँह में दबाते हुए मैंने रुलाई रोकी..भाई साहब उस पुलिंदे को इस तरह देख रहे थे जैसे ‘पूजा’ ,एक बार फिर “सिर्फ तुम्हारी पूजा” होकर सामने आ गई हो! मुझे अपना वो सपना याद आ रहा था जिसमें भाई साहब शादी करके आते हैं,बगल में भाभी खड़ी हैं, वो मुझसे नेग माँगने को कहते हैं …तब तक भाई साहब की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया,
“एक बड़ा सहारा मिल गया.. गुड़िया, कुछ माँग लो आज”
भाई साहब भीगी आँखों से देखते हुए बड़े प्यार से पूछ रहे थे, मेरा सपना आधा ही सही, लेकिन सच होकर मेरे सामने खड़ा था… मैंने भरे गले से पूछ ही लिया,
“आपको भइया कहा करूँ?”

लकी राजीव